2/07/2022

औचित्यपूर्णता का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, प्रकार/वर्गीकरण

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औचित्यपूर्णता का अर्थ (auchityapurn kya hai)

औचित्यपूर्णता अंग्रेजी के शब्द 'Legitimacy' का हिन्दी रूपान्तरण है। इस शब्द की उत्पत्ति लातीनी भाषा के शब्द Legitimus से हुई है। लातीनी भाषा में Legitimus  का अर्थ वैधानिक या कानूनी होता है। मैक्सवेबर ने औचित्यपूर्णता को विश्वास पर आधारित अवधारणा कहा है। राजनीतिक व्यवस्था में शासक वर्ग की नीतियों, कार्यकलापों, संरचनाओं आदि के प्रति विश्वास को ही औचित्यपूर्णता कहा जाता है यह शासन को क्रियाशील बनाए रखने की व्यवहारिक शक्ति है। औचित्यपूर्णता प्रभाव, शक्ति और सत्ता से सम्बन्धित अवधारणा भी है। यह लोकतन्त्रीय शासन प्रणालियों के लिए प्राणदायक है। औचित्यपूर्णता ही वह मानम है जो राज व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान करता है। डेविड ईस्टन ने इसे नैतिक अवधारणा के स्थान पर मनोवैज्ञानिक अवधारणा माना है। वर्तमान समय में औचित्यपूर्णता से अभिप्राय न्याय की आवश्यकता या मानवीय भावना से लिया जाता है। 

आज औचित्यपूर्णता को एक ऐसा विचार नियम मापा जाता है जो किसी विशेष व्यक्ति या समूह को राजनीतिक व अन्य शक्ति को प्रयुक्त करने का अधिकार इस शर्त पर देता है कि जनता को वह शक्ति मान्य है या स्वीकृत है।

औचित्यपूर्णता की परिभाषा (auchityapurn ki paribhasha)

औचित्यपूर्णता को कुछ विद्वानों ने निम्न प्रकार से परिभाषित किया है--  

स्टर्न बर्जर के अनुसार," औचित्यपूर्णता शासकीय शक्ति की नींव है। एक ओर तो यह सरकार को ध्यान दिलाती है कि उसे शासन करने का अधिकार प्राप्त है तथा दूसरी तरफ जनता द्वारा उस अधिकार का अभिज्ञान कराती है।"

मैक्स वेबर के अनुसार," औचित्यपूर्णता विश्वास पर आधारित होती है और अनुपालन प्राप्त करती है।" 

कून एतफ्रेड के अनुसार," औचित्यपूर्णता का अर्थ शासकों और शासितों के बीच एक समझौते की स्वीकृति है। यह लोगों का एक ऐसा समझौता है जिसके अधीन लोग जीवित रहने और कारागार से बाहर रहने के बदले सरकार के आदेशों का पालन करना और कर देना स्वीकार करते हैं।"

लिपसेट के अनुसार," औचित्य का अर्थ राजनीतिक पद्धति द्वारा लोगों में विश्वास पैदा करने की क्षमता है जिसके बल पर लोगों में यह भावना पैदा की जाती है कि स्थापित राजनीतिक संस्थाएं सामाजिक कल्याण के लिए पूर्णतः पर्याप्त है।" 

जीन बलोंडेल के अनुसार," औचित्यपूर्णता से अभिप्राय वह सीमा है जिसे व्यक्ति सम्बन्धित संगठन से पूछे बिना स्वभावतः स्वीकार करते हैं सहमति या स्वीकृति का क्षेत्र जितना विशाल होगा, उस संगठन का औचित्य उतना ही अधिक होगा।" 

इस तरह उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि औचित्यपूर्ण राजनीतिक व्यवस्था का एक ऐसा गुण है जिससे सरकारी संरचना के उपक्रमों तथा इसी प्रकार व्यवस्था की क्षमता को निश्चित किया जाता है औचित्यपूर्णता एक ऐसा तत्व है जो शक्ति और सत्ता को जोड़ता है। औचित्यपूर्णता के बिना शक्ति और सत्ता में स्थायित्व नहीं आ सकता। 

राजनीतिक शक्ति और सत्ता के पीछे जो जनसमर्थन या सहमति होती है उसे ही औचित्यपूर्णता कहा जाता है। राजनीतिक शक्ति व सत्ता के पीछे जन सहमति का अभाव राजनीतिक अस्थिरता का कारण बनता है। इसलिए प्रत्येक सरकार अपने कार्यों को औचित्यपूर्ण बनाए रखना चाहती है। अतः औचित्यपूर्णता के बिना सत्ता व शक्ति सदैव ही संदिग्ध होती है। 

औचित्यपूर्णता की अवधारणा का विकास  

औचित्यपूर्णता की अवधारणा के बीच सर्वप्रथम प्लेटो के न्याय सिद्धान्त में मिलते हैं। प्लेटो का कहना था कि प्रत्येक शासन का आधार नैतिक मूल्य और विश्वास ही होने चाहिए। आगे चलकर अरस्तु ने इसे संविधानिक शासन के रूप में चित्रित किया। मध्य काल में इस अवधारणा का प्रयोग अत्याचारी और न्यायमुक्त शासक के बीच अन्तर करने के लिए किया गया।  मार्सिलियो ऑफ पेडुवा ने इस शब्द की संविधानिक व्याख्या की आगे चलकर जॉन लॉक ने अपने जन सहमति के सिद्धान्त में इस विचार का पोषण किया आधुनिक युग में सबसे पहले मैक्स वेबर ने इसका सार्वभौमिक अवधारणा के रूप में प्रयोग किया वेबर ने बताया कि औचित्यपूर्णता विश्वास पर आधारित होती है और उसका अनुपालन प्राप्त करती है। उसने औचित्यपूर्णता के आधारों पर भी व्यापक विचार-विमर्श किया। उसके बाद कार्ल श्मिट ने तथा गुगलीमों फैरो ने भी औचित्यपूर्णता की समस्या पर विचार किया। इन्होंने मतैक्य को औचित्यपूर्णता का अनिवार्य तत्व नहीं माना। फैरो ने बहुमत, अल्पसंख्यक विरोधी दल को औचित्यपूर्णता का आधार बताया। वर्तमान युग में औचित्यपूर्णता को लोकतन्त्रीय आस्थाओं का आधार माना जाता है।

एम.एम. लिपसेट ने कहा है कि," किसी विशिष्ट में लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थिरता न केवल आर्थिक विकास पर ही निर्भर करती है, बल्कि वहाँ की राजनीतिक व्यवस्था की औचित्यपूर्णता पर भी निर्भर करती है। राबर्ट डॉहल व रोवे ने भी औचित्यपूर्णता को महत्वपूर्ण माना है। इस तरह प्लेटो से लेकर आधुनिक समय तक पहुंचते पहुंचते औचित्यपूर्णता की अवधारणा काफी लोकप्रिय बन चुकी है। आज इसका शक्ति सत्ता और प्रभाव की अवधारणाओं से घनिष्ठ सम्बन्ध है।

औचित्यपूर्णता की विशेषताएं (auchityapurn ki visheshta)

वैधता कोई भौतिक वस्तु नहीं है जिसके भिन्न-भिन्न निर्धारक तत्व हो सकते हैं अपितु यह तो एक धारणा है जिसकी कुछ अपनी ही अवश्यभावी विशेषताएं मानी जाती है। इसकी विशेषताएं प्रत्येक देश में समान नही हो सकती अपितु ये प्रत्येक देश के लोगों के मानसिक स्तर, राजनीतिक विश्वास और आदतों पर निर्भर करती है। औचित्यपूर्णता की विभिन्न परिभाषाओं से औचित्यपूर्णता की निम्नलिखित विशेषताएं स्पष्ट होती है-- 

1. औचित्यपूर्णता व्यवस्था में स्थायित्व लाती है  

औचित्यपूर्णता किसी भी व्यवस्था में स्थायित्व लाने के लिए आवश्यक है। किसी भी व्यवस्था में स्थायित्त्व तभी आता है जब लोगों का उस व्यवस्था विश्वास हो और विश्वास पैदा करने की योग्यता और औचित्यपूर्णता में है। 

2. औचित्यपूर्णता की मूल्यों पर निर्भरता 

किसी व्यवस्था की औचित्यपूर्णता वहां के रहने वाले लोगों के मूल्यों तथा विश्वासों पर निर्भर करती हैं उसी व्यवस्था को औचित्यपूर्णता प्राप्त होती है जो लोगों के मूल्यों के अनुकूल हो। 

3. औचित्यपूर्णता शक्ति के प्रयोग को कम करती है 

शासन में औचित्यपूर्णता के आने पर शक्ति का उपयोग कम हो जाता है क्योंकि शासन को अपने आदेशों का पालन करवाने के लिए दमन की नीति का अनुसरण नहीं करना पड़ता है बल्कि जनता स्वेच्छा से नीतियों का पालन करती है। 

4 .सहमति और स्वीकृति औचित्यपूर्णता का आधार  

औचित्यपूर्णता का आधार लोगों की स्वीकृति और सहमति होती है। जिस व्यवस्था से लोग सहमत होंगे उस व्यवस्था को तभी औचित्यपूर्णता प्राप्त होती है। बिना सहमति तथा स्वीकृति के औचित्यपूर्णता नहीं हो सकती। 

5. औचित्यपूर्णता में विश्वास पैदा करने की योग्यता निहित है 

औचित्यपूर्णता की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें विश्वास पैदा करने की योग्यता होती है और इस विश्वास के कारण ही जनता राजनीतिक व्यवस्था की सत्ता को स्वीकार करती है और उसका समर्थन करती है। 

लिप्सेट के अनुसार, " औचित्यपूर्णता विश्वास पैदा करने की योगयता में विश्वास रखता है।" 

6. औचित्यपूर्णता शक्ति के सत्ता में बदलने का साधन  

यह औचित्यपूर्णता की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है। जहाँ केवल शक्ति हो, वहाँ सत्ता नहीं होती और जब शक्ति औचित्यपूर्णता का जामा पहन लेती है, तब शक्ति सत्ता में बदल जाती है औचित्यपूर्णता के आने पर शासक, शासन की औचित्यपूर्णता प्राप्त करता है। सत्ता का सम्बन्ध लोगों के दृष्टिकोण के अनुसार होना अनिवार्य है तथा इसलिये कहा जाता है कि उचित शक्ति ही सत्ता होती है। 

7. औचित्यपूर्णता में राजनीतिक व्यवस्था की नैतिक अच्छाई में विश्वास पैदा करने की क्षमता होती हैं

औचित्यपूर्णता का एक गुण यह है कि इसमें लोगों में यह विश्वास पैदा करने की क्षमता होती है कि सरकार का ढांचा, नीतिया, निर्णय और कार्य जनता की नैतिक अच्छाई और भौतिक भलाई के लिए है। 

8. राजनीतिक व्यवस्था की प्रभावशीलता को निश्चित करती है 

प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था को इसकी आवश्यकता होती है। यदि कोई सरकार औचित्यपूर्ण न हो तो वह अधिक प्रभावशाली नहीं होती, बल्कि औचित्यपूर्ण (Legitimacy) सरकार अधिक प्रभावशाली होती है। इसलिए तानाशाह भी अपने शासन को औचित्यपूर्ण सिद्ध करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। 

8. औचित्यपूर्णता में राजनीतिक व्यवस्था की उपयोगिता में विश्वास पैदा करने की क्षमता होती है 

औचित्यपूर्णता में राजनीतिक व्यवस्था की उपयोगिता के प्रति जनता में विश्वास पैदा करने की क्षमता होती है, ताकि आम व्यक्ति यह महसूस करे कि राजनीतिक संस्थाएँ अधिक लाभदायक है।

वैधता या औचित्यपूर्णता के स्रोत 

अब तक यह प्रश्न हमेशा उठता रहा है कि वैधता का आखिर मुख्य स्रोत किसे माना जाय? इसका कारण भी स्पष्ट है कि वैधता प्राप्त करने का एक निश्चित तरीका किसे माना जाय? अब तक इसका कोई एक निश्चित तरीका नहीं माना गया। वैधता के सन्दर्भ में कौटिल्य ने माना था कि व्यक्तिगत नेतृत्व के गुणों, विवेक, बल, चातुर्यता के आधार पर वैधता प्राप्त की जा सकती है। डेविड ईस्टन ने वैधता प्राप्ति के स्रोत विचारधारा, संरचना तथा वैयक्तिक गुणों को माना है। उदारवादी व्यवस्था में जन स्वीकृति और विश्वास से वैधता प्राप्त हो जाती है। वैधता जन विश्वासों, मान्यताओं और आवश्कता आदि पर निर्भर करती है। इस प्रकार संक्षेप में यह कह सकते हैं कि राजनीतिक वैधता निम्न आधारों पर प्राप्त होती है-- 

1. वैधता के आधारों में जन सहमति सर्वप्रमुख है। राजनीतिक व्यवस्था मानव मूल्यों के बदलाव के साथ स्वयं सत्ता और शक्ति में परिवर्तन कर लेती है तभी वैधता प्राप्त करने में सफल होती है। बदली परिस्थितियों में यदि राजनीतिक व्यवस्था स्वयं को नहीं ढालती है तो वैधता के समक्ष संकट उत्पन्न हो जाता है। 

2. वैधता प्राप्ति का साधन प्रभाव और प्रभावशीलता को भी माना जाता है। शासन व्यवस्था के कार्यों और नीतियों से जनता प्रभावित रहे और जनता पर शासन के कार्यों तथा नीतियों का प्रभाव इस तरह पड़े कि वह यह समझे कि यह शासन उनके हितों तथा उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये ठीक है, अर्थात् लोगों के मूल्यों की रक्षार्थ उचित हों। इस तरह जनमानस यदि इस प्रकार की शासन व्यवस्था के प्रति विश्वास रखता है तो उसकी वैधता बनी रहती है। 

3. वैधता की प्राप्ति जन सामान्य के द्वारा शासन के समर्थन में भी मानी जा सकती है। जनता पदासीन लोगों के प्रति निष्ठाभाव भी रखती है। इससे भी वैधता की प्राप्ति होती है। लोगों के मूल्यों, आदर्शों और सत्ताधिकारियों की नीतियों में सामन्जस्य होता है तो इससे भी शासन व्यवस्था को वैधता मिलती है। 

4. राजनीतिक व्यवस्था में यदि सत्ताधिकारियों द्वारा परम्पराओं तथा मान्यताओं को स्वीकार किया जाता है तो भी वह वैधता प्राप्त कर लेती है। वास्तव में परम्पराओं के प्रति नागरिकों की गहरी आस्था होती है परिणामस्वरूप नागरिकों का व्यवहार नियन्त्रित रहता है। 

5. यदि किसी राज्य का संविधान नागरिकों के अनुकूल है, वहाँ कानून का शासन है तो नागरिक राज्य की औचित्यपूर्णता को स्वीकार कर लेते हैं। राजनीतिक व्यवस्था की वैधता के लिये विधि-विधान तथा वैधानिक संरचाओं का भी जनता के मूल्यों के अनुरूप होना जरूरी है। यदि संवैधानिक संरचनायें नागरिकों के हितों, उद्देश्यों तथा मूल्यों की पूर्ति करने वाले नहीं तो ऐसी व्यवस्था की वैधता प्रभावी नहीं होती है। 

6. राजनीतिक व्यवस्था वैधता प्रभावशाली नेतृत्व शक्ति के आधार पर भी प्राप्त करती है। श्रेष्ठ एवं चमत्कारिक करिश्माई नेतृत्व वाले नेता किसी संगठन में होते हैं तो भी शासन को जनता की वैधता प्राप्त हो जाती है। शासन जन आकांक्षाओं की पूर्ति करने तथा वैधतायुक्त माना जाता है। अधिनायकवादी व्यवस्था में वैधता स्थायी नहीं रह पाती है क्योंकि जनता शासक द्वारा थोपी गयी व्यवस्था का पूरी तरह समर्थन नहीं करती है। वैसे भी इसे शासक के गुणों एवं कार्यों  (अधिनायकवादी व्यवस्था में) में अधिक जनविश्वास नहीं होता है। 

7. वर्तमान औद्योगिक, वैज्ञानिक एवं बुद्धिवादी समाज में वैधता का एक स्रोत विचारधारा भी है। विचारधारा उन नैतिक तथा राजनीतिक मूल्यों और मापदण्डों को औचित्यता देती है जिनके आधार पर किसी राज व्यवस्था की वैधता प्राप्त होती है। वर्तमान युग में विभिन्न राज व्यवस्थाओं को उदारवादी, राष्ट्रवादी तथा समाजवादी विचारधाराओं के आधार पर वैधता प्राप्त होती है।

औचित्यपूर्णता का महत्व  

किसी राजनीतिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए शक्ति की बहुत आवश्यकता होती है। लेकिन शक्ति का निर्बाध रूप से प्रयोग होना जनक्रान्ति का कारण बन सकता है। इससे जनसमुदाय का शासन व्यवस्था पर से विश्वास उठ जाता है। इसलिए शक्ति को न्यायसंगत बनाने के लिए औचित्यपूर्णता के द्वारा सत्ता में परिवर्तित किया जाता है। औचित्यपूर्णता के प्राप्त होते ही सत्ता और शक्ति दोनों ही स्थायित्व गुण प्राप्त कर लेती हैं। औचित्यपूर्णता प्रभाव को भी सत्ता में परिवर्तित करती है। विकासशील देशों में औचित्यपूर्णता की प्राप्ति के लिए शासक वर्ग को अधिक से अधिक औचित्यपूर्ण बनाना पड़ता है। औचित्यपूर्णता प्रजातन्त्र का आधार है। यह औचित्यपूर्णता ही है जो अल्पसंख्यक तथा बहुसंख्यकों को जोड़े रखती है। लोकतन्त्र में अपने कार्यों व नीतियों को औचित्यपूर्ण बनाने के लिए सभी राजनीतक दल प्रयासरत् रहते हैं। औचित्यपूर्ण ही समाज व्यवस्था की आधारभूत सांस्कृतिक मूल्य-संरचना है। आज औचित्यपूर्णता का अर्थ है- कौन, कब, क्यों और कैसे प्राप्त करता है? स्वतन्त्र एवं नियमित चुनाव, सहमति, उचित प्रतिनिधित्व व्यस्क मताधिकार आदि औचित्यपूर्णता के महत्वपूर्ण संकेतक हैं। औचित्यपूर्णता के बिना न तो जनसमुदाय का विश्वास जीता जा सकता है और न ही शासन व्यवस्था सफल रह सकती है। अतः औचित्यपूर्णता शक्ति और सत्ता को गतिशील बनाने व स्थायित्व प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसी कारण यह आधुनिक समय में राजनीति विज्ञान की महत्वपूर्ण अवधारणा बन चुकी है।

औचित्यपूर्णता के प्रकार/वर्गीकरण (auchityapurn ke prakar)

औचित्यपूर्णता के वर्गीकरण का कोई सर्वमान्य अधिकार नहीं है। इसलिए अलग-अलग लेखकों ने इसके अलग-अलग प्रकारों का वर्णन किया है, औचित्यपूर्णता के निम्नलिखित प्रकार है--

1. व्यक्तिगत औचित्यपूर्णता 

जब किसी राजनीतिक व्यवस्था में जनता राजनीतिक नेताओं तथा सत्ताधारी वर्ग के गुणों, विचारों तथा आदर्शों में विश्वास रखती है और यह मानते हुए कि उनके कार्य उचित न्यायसंगत तथा कल्याणकारी है, उनका समर्थन करती है तो उसे व्यक्तिगत औचित्यपूर्णता कहा जाता है। 

2. वैचारिक औचित्यपूर्णता (वैधता) 

जब किसी राजनीतिक व्यवस्था की वैधता का स्त्रोत उस व्यवस्था की विचारधारा या समाज में प्रचलित व मान्यता प्राप्त मूल्य हो तो उस वैचारिक औचित्यपूर्णता कहते हैं लोकतान्त्रिक राजनैतिक व्यवस्थाओं का आधार व्यक्ति की स्वतन्त्रता, समानता, स्वतन्त्र प्रैस कानून का शासन और स्वतन्त्र न्यायपालिका आदि है। 

3. संरचनातमक औचित्यपूर्णता 

जब किसी राजनीतिक व्यवस्था की औचित्यपूर्णता या स्त्रोत उस व्यवस्था की संरचना अर्थात ढांचा संस्थाएं हो तो उसे संरचनात्मक औचित्यपूर्णता कहा जाता है।

डाल्फ स्टर्न बर्गर ने औचित्यपूर्णता का वर्गीकरण निम्नलिखित वर्गों में किया है-- 

1 नागरिक औचित्यपूर्णता 

नागरिक औचित्यपूर्णता उस शासन को कहते हैं जिसे नागरिकों का समर्थन प्राप्त होता है अर्थात शासकों को शक्ति जनता के आधार पर प्राप्त होती है। यह दैवी औचित्यपूर्णता के विपरीत हैं क्योंकि इसमें शासकों का समर्थन दैवी शक्ति के आधार पर मिलता है। अरस्तु का पोलिस, मध्य युग के आर्थिक संघ और आधुनिक में सैवधानिक व्यवस्थायें इसके उदाहरण हैं। 

2. दैवी औचित्यपूर्णता 

दैवी औचित्यपूर्णता के अन्तर्गत राजनीतिक व्यवस्था या सत्ताधारी व्यक्ति को शक्ति दैवी आधार पर प्राप्त होती है। जैसे-- चीन और जापान में सम्राट को सूर्य का पुत्र (Son of the God) माना जाता था। इंग्लैण्ड में सम्राट जेम्स ने राजाओं को पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि माना।

मैक्स वेबर (Max Weber) ने औचित्यपूर्णता के तीन प्रकारों का वर्णन किया है जो इस प्रकार है-- 

1. करिश्मात्मक औचित्यपूर्णता  

किसी भी राजनीतिक व्यवस्था में लोकनायकों के आकर्षक व्यक्तित्व ने अहम भूमिका निभाई है जब जनता किसी सत्ताधारी व्यक्ति की आज्ञाओं का पालन उसके आकर्षक एवं प्रभावशाली व्यक्ति उसके कार्यों, उसकी योगयता, क्षमता के कारण करती है तो उसे करिश्मात्मक औचित्यपूर्णता कहा जाता है। जैसे महात्मा गांधी, अब्राहम लिंकन आदि। 

2. परम्परागत औचित्यपूर्णता 

परम्परागत औचित्यपूर्णता में रूढ़ियों, रीति-रिवाजों और प्रथाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है जनता द्वारा शासक की आज्ञा का पालन इसी आधार पर किया जाता है अर्थात् राजनीतिक सत्ता का आधार रीति-रिवाज प्रथाएं एवं परम्पराएं होती हैं। 

3. कानूनी-बौद्धिक औचित्यपूर्णता 

कानूनी-बौद्धिक औचित्यपूर्णता का तात्पर्य उस स्थिति से है जिसमें जनता राजनीतिक व्यवस्था या सत्ताधारी व्यक्ति अधिकारी एवं पदाधिकारी आदेशों का पालन उसकी कानूनी बौद्धिक क्षमता के आधार पर करते हैं। कानूनी बौद्धिक औचित्यपूर्णता का आधार संविधान होता है।

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