10/11/2021

चिंतन का अर्थ, परिभाषा, प्रकार

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चिंतन का अर्थ (chintan kya hai)

chintan arth paribhasha svrup prakar;मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है। चिन्तनशीलता नामक मानसिक गुण के कारण यह विश्व के समस्त प्राणियों में उन्नतिशील माना जाता है। चिन्तन एक मानसिक प्रक्रिया है जिसमें संवेदना (Sensation), प्रत्यक्षीकरण (Perception), ध्यान (Attention), एवं कल्पना (Imagination) का समावेश रहता है। चिन्तन की क्रिया का प्रारम्भ व्यक्ति के सम्मुख किसी समस्या के उपस्थित होने के साथ होता है। किन्हीं समस्याओं के उपस्थित होने पर व्यक्ति उसमें समाधान के लिये विचार करना प्रारम्भ कर देता है। कभी-कभी कुछ विशेष परिस्थितियाँ ऐसी समस्या उपस्थित करती हैं, जिनके प्रति व्यक्ति अपने पूर्व अनुभवों के आधार पर सफलतापूर्वक अभियोजन करने में असमर्थ होता है। जब व्यक्ति इन्हीं समस्याओं का समाधान करने का विचार करता है तो विचार करने की यह क्रिया चिन्तन कहलाती है। 

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि विचार अथवा चिन्तन व्यक्ति की समस्याओं का समाधान करने की मानसिक प्रक्रिया है। इसमें व्यक्ति वस्तुओं के स्थान पर उनके प्रतीकों (Symbols) का मानसिक प्रहस्तन करता है। इसमें समस्याओं के समाधान के लिये प्रयत्न एवं भूल की विधि का प्रयोग किया जाता है। किसी अनुसंधानात्मक कार्य के लिये किया गया चिन्तन सप्रयोजन चिन्तन कहलाता है। आविष्कार में चिन्तन की प्रक्रिया में विश्लेषण एवं संश्लेषण दोनों प्रकार के तत्वों का समावेश किया जा सकता है। चिन्तन का सार तत्व समस्या का हल निकालना हैं।

अतः यह स्पष्ट है कि चिन्तन की प्रक्रिया एक मानसिक प्रक्रिया है जो किसी समस्या के उपस्थित होने पर उसके समाधान के लिये प्रयुक्त की जाती है। चिन्तन के अर्थ को समझ के पश्चात् इसके लिये प्रस्तुत की गई विभिन्न परिभाषाओं का अवलोकन करना भी आवश्यक है। 

चिंतन की परिभाषा (chintan ki paribhasha)

चिंतन की मुख्य परिभाषाएं निम्नलिखित हैं--  

रास के अनुसार," चिन्तन ज्ञानात्मक रूप में एक मानसिक प्रक्रिया है। वुडदश  के अनुसार," चिन्तन एक ढंग है जिसके द्वारा किसी बाधा पर विजय पाई जाती है।" 

एल. मन के शब्दों में," चिन्तन प्रत्यात्मक अनुकृमिक जागृति है। "

वारेन के अनुसार," विचार या चिंतन किसी व्यक्ति के सम्मुख उपस्थित समस्या के समाधान के लिये निर्णायक प्रवृत्ति है जो कुछ अंशों में प्रयत्न एवं भूल से संयुक्त प्रतीकात्मक स्वरूप की प्रत्यात्मक प्रक्रिया है।"  

कौलिन्स एवं ड्रेवर के अनुसार," विचार को जीव के वातावरण के प्रति चैतन्य समायोजन कहा जाता है। इस प्रकार विचार समस्त मानसिक स्तर पर हो सकता है जैसे प्रत्यक्षानुभव, प्रतिमानुभव एवं प्रत्ययानुभव।

डीवी (Dewey) के अनुसार," विचार या चिन्तन क्रियाशील, यनशील और सावधानी पूर्वक की गई समस्या की विवेचना है जिसके द्वारा उपस्थित समस्या का समाधान किया जाता है। बी. एन. झा. के अनुसार," विचार सक्रिय प्रक्रिया है, जिसमें मस्तिष्क विचारों की गति का नियन्त्रण एवं नियमन एक सप्रयोजित ढंग से करता है।" 

चिंतन का स्वरूप (chintan ka svrup)

चिन्तन हमारे सम्मुख समस्याओं के समाधान के रूप में उपस्थित होता है। जब कोई समस्या पैदा होती है तो उससे सम्बन्धित चिन्तन प्रारम्भ हो जाता है और जैसे ही समस्या का सुलझाव हो जाता है चिन्तन भी समाप्त हो जाता है। समस्या का समाधान प्रयत्न तथा भूल विधि द्वारा होता है। चिन्तन की प्रक्रिया कुछ इस प्रकार की होती है कि जब हम एक वस्तु के सोचना शुरू करते हैं तो दूसरी स्मरण आ जाती है। इस प्रकार एक क्रम-सा बन जाता है। 

चिन्तन के दो लक्ष्य हैं-- अनुसंधान तथा आविष्कार। जैसे ही समस्या पैदा होती है, उसके समाधान के लिये उपायों की खोज की जाती है या उपाय ढूंढे जाते हैं। समस्या का विश्लेषण करते समय संश्लेषण का भी सहारा लिया जाता है तथा पश्चात् दृष्टि और पूर्व दृष्टि भी होती है, क्योंकि हम अतीत तथा भविष्य के अनुभवों से प्राप्त सामग्री का प्रयोग करते हैं। चिन्तन में विभिन्न प्रतीकों का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि चिन्तन सदैव मूर्त रूप न होकर अमूर्त रूप में होता है।

चिंतन के प्रकार (chintan ke prakar)

साधारणतः मानस प्रयत्नों द्वारा चलने वाली मानसिक क्रिया को चिन्तन कहा जाता है। किन्तु मनोवैज्ञानिकों ने चेतना के स्तर पर होने वाली क्रिया से भिन्न भी चिन्तन की सम्भावना को माना है। उन्होंने चिन्तन के चार प्रकार बताये हैं, जिनका संक्षिप्त वर्णन निम्न प्रकार है-- 

1. प्रत्यक्षात्मक चिन्तन (Perceptual Thinking) 

प्रत्यक्षात्मक चिन्तन एक निम्न कोटि का चिन्तन होता है। इसमें व्यक्ति की संवेदना और चिन्तन प्रत्यक्षीकरण के ज्ञान के काम में आते हैं। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार इसमें भी पूर्व अनुभव का उपयोग किया जाता है क्योंकि उन्हीं के आधार पर व्यक्ति कुछ निश्चय करता है। पशुओं का चिन्तन केवल प्रत्यक्षात्मक चिन्तन तक ही सीमित होता है। उदाहरणार्थ-- एक कुत्ता रोटी पाने के लिये घर में घुसता है किन्तु घर के स्वामी को हाथ में डण्डा लेकर आता देखकर भाग खड़ा होता है। कुत्ते के भागने का कारण उसका प्रत्यक्षात्मक चिन्तन ही है जिसमें उसका पूर्व अनुभव भी सम्मिलित होता है, उसी के आधार पर कुत्ता यह निश्चय करता है कि घर के स्वामी ने इसी प्रकार से उसके घर में घुसने पर पूर्व समय भी डण्डा मारा था, इसलिये आज भी मारेगा और वह भाग खड़ा होता है। पशुओं के अतिरिक्त बालकों का चिन्तन भी प्रत्यक्षात्मक होता है। 

2. कल्पनात्मक चिन्तन (Imaginative Thinking)

कल्पनात्मक विचार अनुभवों के द्वारा मस्तिष्क में अंकित प्रतिमाओं के आधार पर किये जाते हैं। इस प्रकार के चिन्तन में प्रत्यक्ष अनुभव का अभाव रहता है। यह चिन्तन बालकों द्वारा भी किया जाता है और प्रौढ़ व्यक्तियों द्वारा भी। इस प्रकार के चिन्तन का पशुओं में सर्वथा अभाव होता है। इस प्रकार के चिन्तन में प्रत्यक्षीकरण एवं प्रत्ययों का अभाव रहा है। इसमें केवल स्मृति का ही सहयोग रहता है। 

3. प्रत्ययात्मक चिन्तन (Conceptual Thinking) 

यह विचार प्रत्ययों से चलता है। इस प्रकार के विचार में कल्पनाओं का स्थान प्रत्यय ग्रहण कर लेते हैं। पदार्थों की साक्षात अनुभूति, विश्लेषण, वर्गीकरण तथा नामकरण द्वारा प्रत्यय का ज्ञान सम्भव होता है। इस प्रकार पुराने अनुभवों के आधार पर भविष्य पर ध्यान रखते हुये किसी निश्चय पर पहुँचना प्रत्ययात्मक चिन्तन कहलाता है। 

4. तार्किक चिन्तन (Logical Thinking) 

किसी जटिल समस्या के उपस्थित होने पर अपने अनुभवों के आधार तर्क-वितर्क द्वारा समस्या का समाधान करना तार्किक चिन्तन होता है।

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