9/03/2020

बैल की बिक्री, हिन्दी कहानी

By:   Last Updated: in: ,

लेखक का संक्षिप्त परिचय; हिन्दी के विनम्र सेवक और संत साहित्यकार सियाराम शरण गुप्त का जन्म सन् 1895 ई. मे झाँसी जिले के चिरगाँव नामक स्थान मे हुआ था। वे राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त के छोटे भाई थे। गुप्त जी की प्रारंभिक शिक्षा ग्राम की पाठशाल मे ही सम्पन्न हुई, किन्तु उन्होंने स्वाध्याय द्वारा अंग्रेजी मराठी, गुजराती तथा बंगला का समुचित ज्ञान प्राप्त किया। अन्तिम दिनों मे वे दिल्ली मे रहें। सन् 1963 मे उनका निधन हो गया।
गुप्त जी कहानियों मे सात्विक उज्ज्वलता के दर्शन होते है। सभी कहानियाँ गांधीवादी दर्शन से पूर्णतः प्रभावित है। लेखक के सरल व्यक्तित्व की तरह ही उनकी रचनाओं की वस्तु और शैली भी सरल है।

बैल की बिक्री / हिन्दी कहानी (bail ki bikri story in hindi)

कई साल से फसल बिगड़ रही थी। बादल समय पर पानी नही देते थे। खेती के पौधे अकाल वृद्ध होकर असमय मे ही मुरझा रहे थे। परन्तु महाजनों की फसल का हाल ऐसा ना था। बादल ज्यों-ज्यों अपना हाथ खींचते, उनकी खेती मे त्यों-त्यों नए अंकुर निकलते थे।
सेठ ज्वालाप्रसाद उन्ही महाजनों मे से थे! विधाता के वर से उनका धन अक्षय था। जिस किसान के पास पहुँच जाता, जीवन-भर उसका साथ न छोड़ता। अपने स्वामी की तिजोरी मे निरन्तर जाकर भी दरिद्र की झोंपड़ी की माया उससे छोड़ी न जाती थी!
मोहन वर्षों से ज्वालाप्रसाद का ऋण चुकाने की चेष्टा मे था, परन्तु चेष्टा कभी सफल न होती थी। मोहन का ऋण दरिद्र के वंश की तरह दिन-पर-दिन बढ़ता ही जाता था। इधर कुछ दिन ज्वालाप्रसाद भी कुछ अधीर-से हो उठे थे।
रूपये अदा करने के लिए वे मोहन के यहाँ आदमी-पर-आदमी भेज रहे थे।
समय की खराबी और महाजन की अधीरता के साथ मोहन को एक चिन्ता और थी। वह थी जवान लड़के, शिबू की निश्चिन्तता। उसे घर के काम-कज से सरोकार न था। बिल्कुल ही न था, यह नही कहा जा सकता। भोजन करने के लिए यथा-समय उसे घर आना ही पड़ता था। बाप, मजूरी के पैसे लाकर किस जगह रखता है, इसके ऊपर दृष्टि रखनी पड़ती थी। पता मिल जाने पर बीच-बीच मे उन्हे सफाई के हाथ से उड़ाना भी पड़ता था। ऐसे ही और बहुत काम थे। दो-चार बार उसे बैलगाड़ी किराए के लिए चलानी पड़ी थी। सम्भव है, यह बेगार चलकर और अधिक करनी पड़ती। परन्तु हाल मे ही यह सम्भावना भी असम्भव हो गई है। अचानक एक दिन दो-चार घण्टे की बीमारी से हाल मे ही उसका बैल चल बसा (मर गया) था। इस प्रकार ईश्वर ने उसके स्वच्छन्द विचरण के पथ मे एक सुधिवा और कर रखी थी। घर वालों के साथ उसका वही सम्बन्ध जान पड़ता था, जो खेती के साथ उन बादलों का होता है, जिनके दर्शन ही नही होते। यदि कभी होते भी है तो आए हुए धान्य को खेत मे ही सड़ा देने भर के लिए।
परन्तु बादल चाहे जैसी शत्रुता रखें, खेती के लिए उनसे प्यारी वस्तु और कोई नही होती। मोहन भी शिबू का विचार इसी दृष्टि से करता था। सोचता था, अभी बच्चा है। हमेशा ऐसा ही थोड़े रहेगा। जब वह शिबू की कोई बात आई-गई कर जाता तब उसे अपने मृत पिता की याद आ जाती। उसने भी अपने पिता को कम नही खिझाया (शताया) था। पिता के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का सबसे बड़ा साधन कदाचित् बच्चे को प्यार करना ही है! शिबू का यथेच्छाचार क्षमा करते समय प्रायः मोहन का ह्रदय गद् गद हो उठता था।
उस दिन कलेवा (नाश्ता) करके शिबू बाहर निकल रहा था। मोहन ने पीछे से कहा-लल्लू! आज मुझे एक जगह काम पर जाना है। बैल की सार (बैल के रहने की जगह) करके तुम उसे पानी पिला देना।
शिबू ने पिता की ओर मुड़कर कहा-मुझसे यह बेगार न होगी। मुझे भी एक जगह जाना है।
मोहन जानता था कि काँच की तरह सीधी गरमी दिखाकर इसे झुकाने की इच्छा रखना मूर्खता है। विनती के स्वर मे बोला-बेटा, मुझे काम है; नही तो तुमसे क्यों कहता? कौन बहुत देर का काम है।
शिबू उसी तरह अविचल कण्ठ से बोला-थोड़ी देर का काम हो या बहुत देर का, मुझे वाहियात कामों की फुरसत नही हैं।
मोहन झुँझला पड़ा। क्रुद्ध होकर बोला-कैसा है रे! बैल को पानी पिलाना वाहियात काम बताता है। किसानी न करेगा तो क्या बाबू बनकर डाकखाने मे टिकट बेचेगा?
"ठीक तो कहता हूँ, नाराज क्यों होते हो? कितनी बार कहा-इसे बेच दो, अकेला बँधा-बँधा खा रहा है। सार साफ करो, पानी पिलाओं, भूसा डालो। इधर-से-उधर बाँधों, उधर-से इधर। मुझे यह अच्छा नही लगता। किसी काम आता हो तो बात भी है।"
"चुप रह! घर मे जोड़ी न होती तो इतनी बातें बनाना न आता। बैल किसान के हाथ-पैर होते हैं। एक हाथ टूट जाने पर कोई दूसरा भी कटा नही डालता। मैं इसका जोड़ मिलाने की फ़िक्र मे हूँ; तू कहता है-बेच दो। दूर हो, जहाँ जाना हो चला जा। मैं सब कर लूँगा।"
" जा तो रहा ही हूँ। मैं कुछ ऐसा दबैल नही हूँ। "हँसकर कहता हुआ शिबू घर के बाहर हो गया। मोहन कुछ देर ज्यों का त्यों खड़ा रहकर, बड़बड़ाता हुआ उठा और जाकर बैल को थपथपाने लगा। शिबू ने उसकी जो अवज्ञा की थी मानों उसकी क्षति-पूर्ति करने के लिए अपने ह्रदय का समस्त प्यार ढालने लगा।
उस दिन मोहन ने सार की सफाई और अच्छी तरह की। बैल को पानी पिलाने ले गया। तो सोचा इसे नहला दूँ। उजड्ड लड़का ने बैल का जो अपमान किया था, उसे वह अंतस्तल तक से धो देना चाहता था। नहला चुकने पर अपने अँगोछे से पानी पोंछा, बाँधने की रस्सी को भी पानी से धोना न भूला। सार मे बाँधकर भूसा डाला। तब भी मन की ग्लानि दूर न हुई, तो भीतर जाकर रोटी ले आया और टुकड़े-टुकड़े करके उसे खिलाने लगा। वह कहा करता था कि जानवर अपनी बात समझा नही सकते, परन्तु बहुत-सी बातें आदमियों से आधिक समझते है। इसलिए वह अनुभव कर रहा था कि बैल उसके प्रेम को अच्छी तरह ह्रदयंगम कर रहा है।
इस तरह आज इतना समय लग गया, जितना लगाना न चाहिए था। यह बात उसे उस समय मालूम हुई जब ज्वालाप्रसाद के आदमी ने आकर बाहर से पुकारा-मोहन है?
मोहन सुनकर सन्त्र-सा खड़ा रह गया। उसे शिबू पर गुस्सा आया! अगर वह पाजी बैल का उसार कर देता तो वह इस आदमी को घर थोड़े मिलता। शंकित मन से बाहर निकल कर बोला-कौन, रामधन भैया! आओ, कुछ खा पी लो।
रामधन ने रूखाई से कहा-हमें फुरसत नही है। इसी समय मेरे साथ चलो। तुम-जैसे छँटे हुए आदमी से भी किसी का पाला न पड़ा होगा। तुम्हारे पीछे फिरते-फिरते पैरों मे छाले पड़ गए, परन्तु मालिक साहब के दर्शन ही नही होते।
मोहन ने देखते ही समझ लिया, मामला ठीक नही है। चुपचाप भीतर से लाकर अँगोछा कन्धे पर डाला और उसके पीछे हो लिया।
रास्ते मे मोहन ने फसल खराब होने की बात शुरू की। किसानों का गुजारा किस तरह हो रहा है, इस बात की ओर संकेत किया। एक पैसे का सुभीता नही है, यह भी स्पष्टतः कह। रामधन मुँह भारी किए हुए सुनता रहा। मानो उसके मुँह मे भी छाले पड़ गए थे। जब उत्तर देना नितान्त आवश्यक हो गया, तब संक्षेप मे कह दिया-मालिक से कहना।
मोहन ने कहा-हमारे मालिक तो.............
"चुप रह दुष्ट!" - रामधन ने कहा। कहने का अभिप्राय यह था-मालिक-मैं नही हूं। उच्चारण-भंगिमा का अभिप्राय यह था-मालिक हूँ तो मैं। "बड़ी देर की बकबक लगाए है। चुका नही सकता तो कर्जा लिया ही किस लिए था?"
रामधन के साथ वह ज्वालाप्रसाद की कोठी पर जा पहुँचा।
ज्वालाप्रसाद ने अपने स्वर मे संसार-भर का प्रभुत्व भर कर कहा-वादे बहुत हो चुके। अब हमारे रूपये अदा कर दो, नहीं तो अच्छा न होगा!
मोहन ने कहा-मालिक की बातें! खाने को मिलता नही रूपये कहाँ से आएँ?
बातों-ही-बातों मे ज्वालाप्रसाद की जीभ की ज्वाला बेहद बढ़ उठी। "मुर्ख", 'बेईमान' आदि जितनी उपाधियों से एकदम वह निरीह मण्डित हो उठा।
मोहन घर न जा सका। रूपये अदा कर दो और चले जाओ, बस इतनी ही बात थी।
शिबू ने तीसरे पहर घर आकार देखा-दद्दा नही है। मालूम हुआ-सवेरे ज्वालाप्रसाद के आदमी के साथ गए थे। दोपहर की रोटी खाने भी नही आए।
शिबू झपाटे के साथ घर से निकलकर ज्वालाप्रसाद के यहाँ जा पहुँचा। पिता को मुँह सुखाए, पसीने-पसीने एक जगह बैठा देखा। बोला-चलो। आज रोटी नही खानी है?
आवाज सुनकर दूर से ज्वालाप्रसाद ने कहा-कौन है शिबूआ। दाम लाया या यों ही लिवाने आ गया।
शिबू ने अपने कर्कश कंठ को और भी कर्कश करके कहा-अपनी रूपहट्टी लोगे या किसी की जान? अरे, कुछ तो दया होती! बूढ़े ने सवेरे से पानी तक नही पिया। तुम कम से कम चार दफे भोजन ठूँस चुके होगे।
मोहन लड़के का ढंग देखकर घबरा उठा। बोला-अरे ढोर, कुछ तो समझ की बात कर। किससे किस तरह बोलना चाहिए, आज तक तुझे यह शऊर न आया।
"न आने दो। चलो, उठो। मैं तुम्हें यहाँ कसाई की गाय की तरह मरने न दूँगा। रामपुर की हाट (बाजार) मे सोमवार को बैल बेचकर उनकी कौड़ी-पाई चुका दूँगा। "-कहकर शिबू ने पिता का हाथ पकड़ा और उसे झकझोरता हुआ साथ ले गया।
ज्वालाप्रसाद हत् बुद्धि होकर ज्यों का त्यों बैठे रहे। उन्होंने शिबू के जैसा निर्भय आदमी न देखा था। उनके मुँह पर ही उन्हें कसाई बनाया गया! गुस्सा की अपेक्षा उन्हें डर ही आधिक मालूम हुआ। वे भी उसी हाट मे रामपुर जा रहे थे। आजकल डाकुओं का बड़ा जोर था। वह शिबुआ भी तो कहीं डाकुओं मे नही है। कैसा ऊँचा पूरा ह्रष्ट-पुट्टा है! बोलने मे किसी का डर नही; चलने मे किसी का बन्धन नही। दिन-भर फिर किसी काम मे ज्वालाप्रसाद का मन नही लगा।
बार-बार उसका तेज तृप्त चेहरा उन्हें याद आता रहा।
दो दिन मे ही पड़ने लगा-मानो मोहन बहुत दिन का बीमार हो। दिन-भर वह बैल के विषय मे ही सोचा करता। रात को उठकर कई बार बैल के पास जाता। दिन मे और लोगों के सामने अपना प्रेम पूर्णरूप से प्रकट करते हुए उसे संकोच होता है। रात के एकान्त मे उसे अवसर मिलता, बैल के गले से लिपटकर प्राय: वह आँसू बहाने लगता। यदि कभी शिबू उसका यह आचरण देख लेता तो उसे ऐसा जान पड़ता मानों वह कोई अपराध कर रहा है।
हाट जाने के एक दिन पहले उसने शिबू से कहा-एक बात बेटा, मेरी मानना। बैल किसी भले आदमी को देना जो उसे अच्छी तरह रखे। दो-चार कम मिले तो ख्याल न करना।
शिबू बिगड़कर बोला-तुम्हारी तो बुद्धि बिगड़ गई है। जब देखो "बैल-बैल' की रट लगाए रहते हो। मैं मर जाऊँ तो भी शायद तुम्हें बैल के जितना रंज (दुःख) न हो। बैल जिए या भाड़ मे जाए, मुझसे कोई मतलब नही जो ज्यादा दाम देगा, मैं उसी को बेच दूँगा। हमारा ख़्याल कौन रखता है? मैं भी किसी का न रखूँगा। उस कसाई के रूपये उसके मत्थे मार दूँ, मैं तो इतना ही चाहता हूँ, बस।
मोहन चुपचाप सुनता रहा। थोड़ी देर बाद एक गहरी साँस लेकर वहां से हट गया।
जिस समय बैल की रस्सी खोलकर शिबू हाट के लिए जा रहा था, वहाँ मोहन न था। किसी काम के लिए जाने की बात कहकर वह पहले ही बाहर चला गया था।
बैल बेच कर शिबू घर लौट रहा था। रूपये उसकी अण्टी मे थे तो भी आज उसकी चाल मे वह तेजी नही थी, जो जाते समय थी। न जाने कितनी बाते उसके भीतर आ-जा रही थी। बैल के बिना उसे सूना-सूना मालूम हो रहा था। आज के पहले वह यह बात किसी तरह न मानता कि उसके मन मे भी उस क्षुद्र प्राणी के लिए इतता प्रेम था। मनुष्य अपने आपके विषय मे जितना अज्ञानी है, कदाचित् उतना और किसी विषय मे नही है। बार-बार उसे बैल की सूरत याद आती। उसके ध्यान मे आता मानो बिदा होते समय बैल भी उदास हो गया था। उसकी आँखों मे आँसू छलक आए थे। बैल का विचार दूर करता तो पिता का सूखा हुआ चेहरा सामने आ जाता। बैल और पिता मानों एक ही चित्र के दो रूख थे। लौट-फिरकर एक के बाद दूसरा उसके सामने आ जाता था। आह, उसका पिता इस बैल को कितना प्यार करता था! उसे अनुभव होने लगा कि वह बैल उसका भाई ही था। एक ही पिता के वात्सल्य-रस से दोनों पुष्ट हुए थे। जो पिता जानवर के लिए इतना प्रेमातुर हो सकता है, वह उसके लिए न जाने क्या करेगा? सोचते-सोचते उसका ह्रदय पिता के लिए आर्द्र हो उठा। हाय! वह अब तक अपने ऐसे स्त्रेहशील पिता को भी न पहचान सका। उसके ह्रदय का औद्दत्य आज अपने-आप पराजित हो गया था।
घने वन की छाती पर, पत्थर की पक्की सड़क, दोनों ओर के वृक्षों की छाया का उपभोग करती हुई, निर्जन और बस्ती की परवाह न करके, बहुत दूर तक चली गई थी। दूर-दूर तक आदमी का चिह्न तक दिखाई न देता था। बीच-बीच मे कुछ हिरन छलाँगें मारते हुए सड़क पार कर जाते थे। अचानक शिबू ने देखा-एक जगह बहुत-सी बैलगाड़ियाँ ढिली हुई है। एक ओर की निर्जनता के आधार पर ही दूसरी ओर की सघनता अवलम्बित है। मानों यही दिखाने के लिए ऊँची सड़क के दोनों ओर लगातार नीची खंदकें चली गई थी। दो-तीन सौ आदमी उन खन्दियों मे चुपचाप दूर तक श्रेणीबद्ध बैठे हुए थे। शिबू ने समझा, सड़क पर साहूकार के आदमी है। कुछ वसूल कर लेने के लिए इन आदमियों को परेशान कर रहे है। साहूकार का विचार आते ही उसका गर्वित ह्रदय विद्रोही हो उठा। विचारों की श्रृंखला छिन्त्र-भिन्न हो गई । वह तेजी से चलने लगा।
"कौन है, खबरदार, खड़ा रह!"
शिबू ने देखा-पुलिस के सिपाहियों की पोशाक मे बन्दूकें लिए हुए पाँच आदमी है। मुँह कपड़े से इस तरह बाँधे हुए है कि सूरत साफ दिखाई न दे सके। बीच सड़क पर एक कपड़ा बिछा हुआ है। उस पर रूपये, पैसे और गहनों का ढेर लगा है। शिबू को समझने मे देर नही लगी-डाकू हैं, सिपाही नही। दिन-दहाड़े यहाँ लूट हो रही है। सड़क के नीचे खन्दियों मे जो लोग बैठे है वे लुट चुके है। डाकुओं के धन के साथ मानो उनकी गति और वाणी भी अपह्रत कर ली है।
हाँ, तो-एक डाकू फिर से कड़ककर बोला-कौन है, चला ही आ रहा है? खड़ा हो जा। रख दे जो कुछ तेरे पास हो। शिबू ने देखा-अब रूपये जाते है। उसे रूपयों का मोह कभी न था। रूपया-पैसा उड़ाना ही उसका काम था! परन्तु ये रूपये-ये रूपये किस तरह आए है, यह बात वह अभी-अभी अनुभव करता आ रहा था। एक क्षण के हिस्से मे उसे पिता का सूखा हुआ चेहरा याद आया और दूसरे क्षण उस महाजन का जिसने रूपये चुकाने के लिए उन्हे तीसरे पहर तक भूखा-प्यासा रोक रखा था। ज्यादा विचार करने का अवसर न था। वह छाती तान कर खड़ा हो गया। बोला-मैं रूपये नही दूँगा।
बोलने वाला डाकू शिबू का सुदृढ़ कंठ-स्वर सुन स्तम्भित हो गया। इतने आदमी अभी-अभी लूटे गए है; इस तरह तो कोई नही कह सका।
दूसरा डाकू बन्दूक का कुन्दा मारने के लिए उस झपटा। शिबू ने बन्दूक के कुन्दे को इस तरह पकड़ लिया जिस तरह सँपेरे साँप का फन पकड़ लेते है। अपने को आगे ठेलता हुआ वह बोला-तुम मुझे मार सकते हो, परन्तु रूपये नही छीन सकते। ये रूपये मेरे पिता के कलेजे के खून मे तर है। मेरे जीते-जी महाजन के सिवा इन्हें कोई नही ले सकता। यह कहकर शिबू ने अपने पूरे वेग के साथ निकल जाना चाहा। तब तक पाँचों डाकुओं ने घेरकर उसे पकड़ लिया। वह उच्च कण्ठ से फिर चीत्कार कर उठा। छोड़ दो, मैं रूपया नही दूँगा।
शिबू का चीत्कार सुनकर लुटे हुए लोग खन्दियों मे उठकर खड़े हो गए। देखने लगे-कौन है, जो प्रत्यक्ष मौत का सामना कर रहा है।
डाकुओं ने एकदम देखा-वे केवल पाँच और दो-तीन सौ आदमी उनके विपक्ष मे उठ खड़े हुए है। उन्हें विस्मय करने का भी अवसर न मिला कि उन्होंने बन्दूक के बल पर एक-एक दो-दो करके इतने आदमी कैसे लूट लिए है। यदि ये उजडु की तरह बिगड़ खड़े हों, तो कौन इनका सामना कर सकता है! भय और साहस संक्रामक वस्तुएं है। शिबू का साहस देख कर उधर लुटे हुए लोगों का भय भी दूर हो रहा था। देखने तक का समय न था, परन्तु डाकुओं ने स्पष्ट देख लिया-एक साथ सब लोगों के भाव बदल गए है। उन लोगों मे से कुछ खन्दियाँ पार करके सड़क तक भी नही आ सके कि डाकू बन्दूकें हाथ मे लिए हुए द्रुतगति से सड़क के नीचे उतर गए। लूट का माल उठाने मे समय नष्ट करने की अपेक्षा अपने प्राण लेकर भागना ही उन्हें आधिक मूल्यवान प्रतीत हुआ। थोड़ी ही देर मे वे लोग आँखों से ओझल हो गए।
लोगों ने आकर शिबू को चारों ओर से घेर लिया। अधिकांश स्त्री-बच्चे और पुरूष अब तक भय के मारे काँप रहे थे। रोग की तरह दूर हो जाने पर भी भय शरीर को कुछ समय के लिए नि:शक्त कर रखता है। स्त्रियाँ शिबू को आशीर्वाद दे रही थीं-बेटा, तेरी हजारी उम्र हो! परन्तु शिबू इस समय भी अपने आपे मे न था। वह सोच रहा था कि इनमे अधिकांश ऐसे आदमी है, जो रूपये के लिए बुरे-से बुरे काम कर सकते है। रूपया ही इनका सब-कुछ है। उसी को इन्होंने इस प्रकार कैसे लुट जाने दिया?
भीड़ मे से एक आदमी निकलकर शिबू के पास आया। बोला-कौन है, शिबू माते? तुमने आज इतने आदमियों को.... ।
शिबू ने कहा-ज्वालाप्रसाद है। शरीर पर धोती के सिवा कोई वस्त्र नही। डाकुओं ने रूपये-पैसे के साथ उसके कपड़े भी उतरवाकर रखवा लिए थे। उसे देखते ही उसका मुँह घृणा से विकृत हो उठा। अण्टी से रूपये निकालकर उसने कहा-बड़ी बात, शिबू माते तुम्हें आज यहीं मिल गए। लो, अपने रूपये चुकते कर लो। अब लुट जाए तो मैं जिम्मेदार नही।

कोई टिप्पणी नहीं:
Write comment

आपके के सुझाव, सवाल, और शिकायत पर अमल करने के लिए हम आपके लिए हमेशा तत्पर है। कृपया नीचे comment कर हमें बिना किसी संकोच के अपने विचार बताए हम शीघ्र ही जबाव देंगे।