स्त्री पुरुष लैंगिक असमानता की चर्चा कीजिए।
उत्तर--
नैसर्गिक रूप से प्रकृति ने पुरुष एवं स्त्री दो प्रकार के लैंगिक मानव निर्मित किये हैं। प्रकृति ने इनकी शारीरिक आवश्यकताओं के अनुसार कुछ समानतायें तथा कुछ असमानताएं प्रदान की हैं।
लैंगिक असमानता
(i) शारीरिक बनावट
स्त्री व पुरुष की शारीरिक बनावट में अंतर पाया जाता है पुरुष की लम्बाई स्त्री से अधिक होती है। उनका वजन भी अपनी ही आयु की स्त्री से अधिक होता है उनके कंधे चौड़े और मजबूत होते हैं। शरीर पर किशोरावस्था के बाद दाढ़ी एवं मूँछ दिखाई देती हैं। स्त्री आगे जाकर शिशु को जन्म देती है इसलिए प्रकृति ने स्त्री के शरीर को नौ माह तक शिशु का भार उठाने योग्य बनाया है। स्त्री का कद साधारणतः 5-6 फीट तक होता है परन्तु कोई-कोई स्त्री इससे भी लम्बी होती हैं। यौवनारंभ काल के बाद स्त्री के कमर और स्तनों का विकास होता है जो आगे चलकर शिशु के लिये दूध का आधार बनते हैं।
(ii) प्रजनन अंगों में विभिन्नता
स्त्री व पुरुष की प्रमुख विभिन्नता उसके लैंगिक अंगों में होती है। मनुष्य एक उच्च स्तर का मैमेलिक जीव है जिसकी प्रजनन क्रिया पुरुष एवं स्त्री के संयोग से सम्पन्न होती है इसके लिए पुरुष में शुक्राणु तथा स्त्री में अण्ड निर्मित होते हैं। पुरुष के शरीर में टेस्टिस व स्त्री के प्रजनन अंगों में दो ओवरीज पायी जाती हैं जो अण्ड के निर्माण में सहायक होती हैं।
(iii) ध्वनि में विभेद
साधारणतया पुरुष की ध्वनि भारी होती है। आवाज का यह भारीपन किशोरावस्था के उदय के साथ प्रारंभ होता है स्त्री की आवाज धीमी तथा कोमल होती हैं।
(iv) मानसिक स्तर
पुरुष, स्त्री की अपेक्षा कठोर तथा कूर होता है, हो सकता है यह आनवंशिकता के साथ-साथ वातावरण का भी प्रभाव है स्त्री अधिक कल्पनाशील व रचनात्मक होती है स्त्री में दया तथा प्रेम का गुण पाया जाता है साधारणतः वह कूरता नापसन्द करती है। ईर्ष्या स्त्री में अधिक पाई जाती है।
(v) श्रृंगारप्रियता
स्त्री, पुरुष की अपेक्षा अधिक श्रृंगारप्रिय होती है। उससे रूप संवरता तथा दर्पण में स्वयं को निहारना प्रिय होता है।
(vi) सामाजिकता
पुरुष तथा स्त्री को सामाजिकता के विभिन्न अवसर प्राप्त होते हैं पुरुष का सामाजिक संपर्क सघन होता है जबकि स्त्री के सामाजिक दायरे सीमित होते हैं।
(vii) स्वतंत्रता
स्त्री को पुरुष की अपेक्षा कम स्वतंत्रता प्राप्त होती है जबकि पुरुष अपने निर्णय लेने में तो स्वतंत्र होता ही है अन्य प्रकार की सामाजिक स्वतंत्रता का भी उसे अधिकार प्राप्त होता है।
(viii) रीति-रिवाज
समाज द्वारा स्त्री से सामाजिक रीति रिवाजों को निभाने की अपेक्षा की जाती है। उसे एक पतिव्रत धर्म का पालन करने पर विवश किया जाता है जबकि पुरुष रीति-रिवाजों का कठोरता से मानने को बाध्य नहीं होते है।
(ix) सामाजिक बंधन
स्त्री को सामाजिक बंधनों में जीवन यापन करना पड़ता है जन्म के बाद, विवाह के बाद, पति के तथा वृद्धावस्था में बेटे के बंधन में रहना पड़ता है जबकि पुरुष को सामाजिक बंधन से मुक्त रखा गया है।
(x) धार्मिकता
स्त्री पुरुष में धार्मिक अंतर भी पाया जाता है जो वातावरण की देन है। स्त्री धर्मभीरू होती है। उसको बचपन से जैसा धर्म सिखाया जाता है। वह उसी धर्म को धारण करती है तथा जीवन भर उसका पालन करती है।
(xi) रुचि एवं अभिवृद्धि
पुरुष व स्त्री की रुचियाँ व अभिवृद्धि भी मिश्रित होती है।
(xii) संस्कृति
संस्कृति ने भी पुरुष एवं स्त्री में विभेद किया है। स्त्री व पुरुष के पहनावे में अंतर होता है। स्त्री को घरेलू कार्यों की शिक्षा दी जाती है जबकि पुरुष पर आर्थिक उपार्जन का कार्य सौंपा जाता है। वर्तमान में इस दशा में अंतर आया है, और स्त्री भी अर्थोपार्जन करने लगी है।
(XIV) बालको का लालन पालन
प्रकृति ने स्त्री को प्रेम व ममता से परिपूर्ण बनाया है। उसके हृदय में प्रेम तथा आंचल में अपने शिश के लिए दूध होता है। जन्म के पर्व से ही बालक माता पर निर्भर होता है। एक सूई की नौंक से भी सुक्ष्म कोशिका माता के गर्भ में नो माह में एक शिश के रूप में बदल जाती है। इस प्रकार जन्म के पर्व से ही शिशु माता के व माता के भोजन से जीवन प्राप्त करता है तथा जन्म के बाद स्तनपान द्वारा भोजन प्राप्त करता है इसके अतिरिक्त बालक के आराम, निद्रा, स्वच्छता, प्रेम, सुरक्षा आदि का भार भी माता पर ही रहा है।
निष्कर्ष
अतः स्त्री और पुरुष दोनो ही एक दूसरे के पूरक हैं अतः दोनों को अपने प्रकृति गुणो का विकास करना चाहिए तथा दोनों को ही विकास के समान अवसर मिलना चाहिए। दोनों ही व्यक्ति पहले हैं अतः उन्हें लैंगिक विभेद से बचाना चाहिए।
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