लिंग या जेंडर का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर--
लिंग या जेंडर का अर्थ
हिन्दी में जेंडर के लिए 'लिंग' शब्द प्रचलित है। लिंग से किसी भी जीवधारी के 'नर' या 'मादा' होने का बोध होता है। प्रकृति द्वारा समस्त जीवधारियों को सामान्यतः नर या मादा वर्गों में उत्पन्न किया गया है। यह वैभिन्य प्राणियों के जीवन चक्र को बनाये रखने तथा उनमें प्राकृतिक संतुलन उत्पन्न करने का ईश्वरीय वरदान है। नर व मादा दोनों वर्गों की प्रकृति, स्वभाव, आवश्यकता, कार्यक्षमता, प्रकृति, लक्षणों, संस्कारों आदि में कुछ असमानताएं तथा कुछ समानताएं परिलक्षित होती हैं। मानव (ह्यूमन बीइंग) भी पुल्लिग और स्त्रीलिंग इन दो प्रधान के वर्गों में विभक्त है।
अंग्रेजी में 'लिंग' (सेक्स) तथा 'जेंडर' इन दोनों शब्दों में मानव आधार पर अंतर किया जाता है। लिंग (सेक्स) एक जैविक स्वरूप को प्रकट करता है जैसे पुरुष (XY) या महिला (XX) को। किन्तु जेंडर के अर्थ में सामाजिकता सम्मिलित है। मानव सामाजिक प्राणी है तथा सर्वत्र प्रायः समाज में निवास करता है। घर-परिवार, जाति, कबीले, संस्थाएं, संगठन आदि समाज का ही रूप हैं। सामाजिक संदर्भ के साथ जेंडर की धारणा मात्र जैविक रूप से स्त्री या पुरुष होने तक सीमित नहीं है। इसमें स्थान, काल संस्कृति के आधार पर पाई जाने वाली विशेषताएं भी सम्मिलित हैं। जेंडर पुरुषोचित तथा स्त्रियोचित के मध्य अन्तर प्रदर्शित करने के साथ-साथ मानवोचित धारणा के अधिक निकट है।
यह सही है कि स्त्री-पुरुष या बालक-बालिकाओं में कुछ असमानताएं तथा कुछ समानताएं हैं। इन असमानताओं तथा समानताओं की पहचान जेंडर के सामान्य अर्थ की पहचान करने के लिए आवश्यक है। शारीरिक असमानता बालक-बालिकाओं में निम्न बिन्दुओं से स्पष्ट है---
(1) बालक
बालक बालिकाओं की तुलना में कठोर, बलिष्ठ तथा मजबूत शरीर के होते हैं। बालक (पुरुष) की आवाज भारी होती है। बालकों की लंबाई (औसत लंबाई) बालिकाओं की लंबाई की तुलना में अधिक होती है जैसे पाँच वर्ष की आयु में बालिका की लंबाई 101.4 सेंटीमीटर तथा तथा बालक की 102.1 सेंटीमीटर तक पाई जाती है है। बालकों व पुरुषों का वजन भी बालिकाओं/स्त्रियों की अपेक्षा प्रायः अधिक होता है। 5 वर्ष की बालिका का वजन 14.5 किलोग्राम तथा इस उम्र के बालक का वजन 14.8 किलोग्राम तक औसतन पाया जाता है। शारीरिक दृष्टि से बालिकाएं/स्त्रियां कठिन और कठोर कार्यों को करने में कम सक्षम होती हैं जबकि बालक/पुरुष कठिन कार्य करने में अपेक्षाकृत अधिक सक्षम होते हैं। बालक में गामक योग्यता का विकास तीव्र गति से होता है जबकि बालिकाओं में गामक योग्यता का विकास बालकों की तुलना में मंदगति का पाया जाता है। बालिकाओं में गामक योग्यताओं का विकास प्रायः 14 वर्ष की आयु तक होता है जबकि बालकों में यह विकास 18 वर्ष की आयु तक चलता है। पिट्यूटी ग्रंथि के हार्मोन का प्रभाव लंबाई के विकास पर पड़ता है। बालकों में यौन संबंधी परिवर्तनों में दाढ़ी-मूंछ निकलना, हाथ-पैर, बगल तथा शरीर के गुप्तांगों में बाल निकलना, कंधों का चौड़ा होना, मुँहासे निकलना, बगल की स्वेद ग्रंथियों के सक्रिय होने से विशेष गंध युक्त पसीना निकलना आदि शारीरिक परिवर्तन किशोरावस्था में आने लगते हैं। किशोरावस्था के प्रारंभ में बालकों का गुप्तांग (लिंग) कार्य करने लगता है तथा धीरे-धीरे परिपक्व हो जाता है। चौदह वर्ष की उम्र में पुरुष जननेन्द्रिय में केवल दस प्रतिशत परिपक्वता आती है तथा बाद के दो वर्षों में इतनी तेजी से विकास होता है कि उसकी जननेन्द्रिय (लिंग) उत्तर किशोरावस्था की समाप्ति तक पूर्णतः परिपक्व हो जाती है। अंडग्रंथियों में परिपक्व शुक्राणुओं का निर्माण होने लगता है। किशोरावस्था मे बालक के शरीर के सभी अंग सिर, मुखमंडल, धड़, पैर व भुजाएं सभी अनुपात में आ जाते हैं। जहाँ बाल्यावस्था में शरीर का ऊपरी भाग बड़ा होता है, वहीं किशोरावस्था में निचला भाग ऊपरी भाग की तुलना में लंबा हो जाता है। नाक, कान, माथा, आंखें व शरीर के अन्य अंग भी उपयुक्त आकार में आ जाते हैं। बालक प्रौढ़ आकृति प्राप्त कर लेते हैं। उनकी त्वचा चिकनी व कोमल हो जाती है। सिर के बाल पहले की तुलना में अधिक घने व काले हो जाते हैं। किशोरों की आवाज भारी होने लगती है।
(2) बालिका
बालिकाएं कोमलांगी होती हैं। बालकों की अपेक्षा वे प्रायः कम शक्तिशाली होती हैं। बालिका की लंबाई बालकों की अपेक्षा प्रायः कम होती है। बालिकाओं का वजन भी बनिस्बत प्रायः कम होता है। किन्तु 10 से 15 वर्ष की आयु में बालिकाएं/लड़कियां लड़कों की तुलना में अधिक वजन प्राप्त कर लेती हैं। परन्तु बाद में लड़के लड़कियों की अपेक्षा अधिक भारी हो जाते हैं। बालिकाओं की आवाज पतली तथा कोमल होती है। बालिकाएं कठोर श्रम करने, अधिक परिश्रम तथा बल के खेल खेलने में बनिस्बत कम सक्षम होती हैं। (यह औसत को विचार कर किया गया कथन है इसके अपवाद हो सकते हैं।) बालिकाओं के सिर के बाल अधिक लंबे व घने होते हैं। बालिकाओं में बारह से सोलह-सत्रह वर्ष की आयु तक यौन अंगों का विकास तीव्र गति से होता है। बीस-इक्कीस वर्ष की आयु में स्त्री का प्रजनन तंत्र संतानोत्पत्ति के लिए पूरी तरह से तैयार हो जाता है। इसका प्रमुख लक्षण बालिकाओं में मासिक धर्म/पीरियड का आना प्रारंभ हो जाता है। बालिकाओं के आभामंडल पर चमक आ जाती है तथा उरोजों का विकास होने लगता है। बालिकाओं के मुखमंडल पर निखार आ जाता है।
बालक बालिका के शारीरिक परिवर्तनों की दिशा में अंतर होने पर भी उनके मानसिक विकास में समानता परिलक्षित होती है। किशोरावस्था तक बालक बालिकाओं की बुद्धि का अधिकतम विकास हो जाता है। दोनों की तर्कशक्ति, स्मरण शक्ति, कल्पना शक्ति, भावना शक्ति, चिंतन शक्ति, भाषागत विकास में कोई बुनियादी तथा उल्लेख योग्य असमानता प्रायः नहीं पाई जाती । सीखने की क्षमता दोनों जेंडर में समान रूप से पाई जाती है।
सामाजिक दृष्टि से दोनों जेंडर में असमानताएं हैं। पुरुष प्रधान समाज होने के कारण पुरुषों की तुलना में स्त्रियों को कम महत्त्व दिया जाता है। परिवार व घर में भी बालक को वंश चलाने वाला तथा बालिकाओं को पराया धन माना जाता है जिन्हें एक दिन विवाह के उपरांत अन्य घर में चले जाना है। लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की पढ़ाई की ओर भी कम ध्यान दिया जाता है। स्त्री का कार्य घर तक सीमित माना जाता है। खाना बनाना, संतानोत्पत्ति तथा संतान का पालन पोषण ही उनका कर्त्तव्य माना जाता है। कुछ जातियों में औरतों को पैरों की जूती समान माना जाता है। सामान्य परिवारों में यह धारणा है कि बेटे बेटियों से बढ़कर होते हैं। बालिकाओं स्त्रियों की घूँघट प्रथा, पर्दा प्रथा व बुरका प्रथा ने उनके सामाजिक विकास में अवरोध उत्पन्न कर रखा है। इस सामाजिक पक्षपात के कारण ही स्त्री-जाति अत्याचार व दमन का अधिक शिकार रही है।
सांस्कृतिक दृष्टि से नारी वर्ग पुरुषों की अपेक्षा अधिक सुसंस्कृत है। घर-परिवारों में रीतिरिवाज, धार्मिक संस्कार, कला, नृत्य, संगीत, प्रम्पराओं का रक्षण महिलाओं द्वारा होता है। पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ अधिक कलाप्रिय होती हैं।
सारांश यह है कि प्राकृतिक असमानताओं के बावजूद स्त्री व पुरुष दोनों में समानता या बराबरी होती है। ऐसा कोई कार्य या क्षेत्र नहीं है जहाँ स्त्रियों की हिस्सेदारी न हो। जेंडा की आधुनिक मानवीय संकल्पना सामाजिक समानता तथा मानवोचित बराबरी के सिद्धान्त से जुड़ी हुई है। यह संकल्पना एकपक्षीय, रूढ़िवादी, परम्परागत, दकियानूसी सोच से पृथक नारी सशक्तिकरण तथा नारी को पुरुषों के समान अधिकार व दर्जा देने से जुड़ी हुई है। नयी संकल्प नारी के प्रति सकारात्मक सोच को व्यक्त करती है ।
मानव इतिहास गवाह है कि नारी को सर्वदा अबला माना गया तथा शोषण का शिकार बनाया गया। आधुनिक मानवीय संप्रत्यय के अनुसार स्त्री के प्रति परम्परागत रूढ़िवादी सोच के स्थान पर विश्वसनीय नारी जागरण व उत्थान को विकसित किया जाना अपेक्षित है।
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