भारतीय समाज में लैंगिक असमानता के विविध रूप
प्रत्येक समाज में लैंगिक असमता अनेक रूपों में विद्यमान रहती है। अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार विजेता भारतीय अमर्त्य सेन के अनुसार लैंगिक असमता विश्व के सभी देशों जापान से जाम्बिया, यूक्रेन से संयुक्त राज्य अमेरिका में तक पाई जाती है परन्तु पुरुषों एवं स्त्रियों में असमता अनेक रूपों में होती है। यह एक सजातीय प्रघटना न होकर अनेक अन्तर्सम्बन्धित समस्याओं से जुड़ी प्रघटना है। अमर्त्य सेन में विश्वव्यापी लैंगिक असमानता के निम्नलिखित सात रूप बताए हैं--
(1) मर्त्यता असमता
अर्थात् स्त्रियों की उच्च मृत्यु दर जिसके परिणाम स्वरूप कुछ जनसंख्या में पुरुषों की संख्या स्त्रियों से अधिक हो जाती है।
(2) प्रासूतिक असमता
कार्य परीक्षण कर बच्चे का लिंग ज्ञात कर गर्भस्थ शिशु यदि लड़की है तो उसका गर्भपात कराना ।
(3) मौलिक सुविधा असमता
जैसे कुछ समय पूर्व तक अफगानिस्तान में लड़कियों की शिक्षा पर पाबंदी का होना।
(4) विशेष अवसर असमता
अत्यन्त विकसित एवं सम्पन्न देशों में भी उच्च शिक्षा तथा व्यावसायिक उच्च प्रशिक्षण में लैंगिक पक्षपात का होना।
(5) व्यावसायिक असमता
रोजगार एवं व्यवसाय प्राप्त करना स्त्रियों के लिए कठिन होना।
(6) स्थायित्व असमता
सम्पत्ति पर उत्तराधिकार में स्त्रियों की पुरुषों से पिछड़ी हुई स्थिति होना।
(7) घरेलू असमता
घरेलू कार्य, बच्चों का लालन-पोषण, घर की देखभाल का दायित्व केवल महिलाओं का होना तथा पुरुषों का उसमें (घरेलू कार्य में) असहयोग होना।
न्यूनाधिक रूप से भारतीय समाज में भी उक्त सातों असमताओं के रूप दिखाई देते हैं। भारतीय समाज में वैदिक युग में नारी को गरिमामय स्थान तथा यह धारणा भारतीय समाज में थी कि जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवों का वास होता है। लेकिन कालान्तर में पौराणिक काल में मध्यकाल (मुस्लिम शासन काल) में समाज में आततायी तथा स्त्रियों को लूटने वाले लोग आए तब समाज में पर्दा प्रथा, बाल विवाह प्रथा, दहेज प्रथा आदि कुप्रथाएं प्रारंभ हुईं। जन शिक्षा बालिका के लिए न होने से महिला शिक्षा में कमी आई तब ब्रिटिश काल के किंचित सुधारवादी कदमों तथा स्वतंत्र भारत के विशाल सुधारों के बाद भी आज भी पुरुषों की शिक्षा से कमतर स्थिति में है।
वर्तमान में भारतीय समाज में लैंगिक असमता के निम्नलिखित रूप प्रमुख हैं--
(1) सामाजिक लैंगिक भेदभाव
भारतीय समाज पितृसत्तात्मक है तथा पुरुष को प्रधानता देता है। पुरुषों में शक्ति, प्राधिकार, धनोपार्जन का प्रचलन होने से परिवारों में स्त्रियों का दोयम दर्जा है। संयुक्त हिन्दू परिवारों में स्त्रियों को दिनभर घरेलू कार्यों में खटना पड़ता है। एकल परिवारों में अनेक पुरुष पत्नियों के साथ मारपीट करते पाए जाते हैं। परिवार में लड़को की देखभाल अधिक अच्छे से की जाती है क्योंकि उन्हें कुलदीपक तथा वंश आगे बढ़ाने वाला माना जाता है, जबकि लड़कियों का जन्म ही अशुभ तथा दहेज आदि प्रथा के कारण घर का खर्च बढ़ाने वाला माना जाता है। राजस्थान आदि प्रांतों में तो जन्म लेते ही लड़कियों की हत्या कर देने की दुर्दात घटनाएं सुनाई देती हैं। उस स्त्री पर भी अत्याचार किये जाते हैं जिसने बालिका को जन्म दिया। बालिका को अमानत माना जाता है जो शादी के उपरांत दूसरे घर (ससुराल) चली जाएगी, अतः उसकी शिक्षा के प्रति भी भारतीय समाज में परिवारों में वह समानता नहीं है जितनी बालकों को है। लड़कियों का कार्यक्षेत्र घर की चहारदीवारी तक सीमि रहता है तथा लड्के बाहर घूमते व मौज करते रहते हैं। लड़कियाँ रसोई, कपड़े धोना, झाडू पोंछा लगाना, छोटे बच्चे पालना तथा स्त्रियाँ घरेलू कुटीर उद्योग या खेती बाड़ी व पशुपालन में दिन भर व्यस्त रहती हैं।
(2) शिक्षा में असमानता
वैदिक काल में भारत में बालिकाओं की शिक्षा के कुछ उदाहरण मिलते हैं हैं। गौतम बुद्ध ने भी भी अपने समय में बौद्ध मठों में शिक्षा के प्रयोजन हेतु कुलीन महिलाओं को प्रवेश दिया था। परन्तु मुस्लिम युग तक आते-आते बालिकाओं की शिक्षा की प्रथा कम हो गई। आज भी बालकों की तुलना में बालिकाएं कम शिक्षा प्राप्त कर रही हैं। परिवार में अभिभावक गण भी बालिकाओं को शाला भेजने या नियमित रूप से शाला भेजने में प्रायः रुचि कम लेते हैं। बालिकाओं को घरेलू कार्यों की भट्ठी में झोंक देने से वे प्रतिभा तथा योग्यता होते हुए भी शाला जाने से वंचित रह जाती हैं। अधिकांश बालिकाएं घर में अध्ययन कर प्राइवेट रूप से परीक्षा देती हैं जिनमें वह बात नहीं आ पाती जो शाला जाने वाले छात्र छात्राओं में होती है। भारतीय समाज विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICSSR) बात किये गए एक अध्ययन से पता चलता है कि सन् 1971 में साक्षर स्त्रियाँ 18.4 प्रतिशत थीं सन 1981 में साक्षर स्त्रियों का प्रतिशत 25 था तथा सन् 1991 में 39.42 तथा सन् 2001 में 54.16 प्रतिशत हो गया। आंकड़ों से स्पष्ट है कि निरक्षर महिलाओं की संख्या भी बहुत अधिक रही है। पुरुषों की तुलना में में स्त्रियों की शिक्षा में आज भी व्यापक असमानता के दर्शन होते हैं।
(3) रोजगार में असमानता
सन् 1981 की जनगणना के अनुसार महिला श्रम सहभागिता 20.85 प्रतिशत थी। वास्तव में भारतीय समाज में महिला का कार्यक्षेत्र घर तक सभितगत तथा बाहर शिकार्य व रोजगार द्वारा धनोपार्जन पुरुषों द्वारा अधिक किया जाता है। स्त्रियों के लिए रोजगार के अवसर पर्याप्त तथा बहुमुखी नहीं हैं। आज भी पढ़ी लिखी महिलाएं शिक्षण, परिचर्या, चिकित्सा जैसे क्षेत्र में अधिक हैं जबकि पुरुषों के लिए रोजगार के विविधमुखी बहुल अवसर तुल्य हैं। संगठित उद्योगों में स्त्रियाँ प्रायः निम्न स्तर का कार्य ही करती हैं। हर्ष का विषय है कि मॉडलिंग, अभिनय, टेलीविजन, पत्रकारिता, मीडिया, प्रशासनिक कार्यों में भारत में कुछ महिलाएं अपनी योग्यता को प्रदर्शित कर रही हैं परन्तु हिन्दुस्तान की आधी आबादी की तुलना में इसे अपर्याप्त ही माना जायेगा।
(4) स्वास्थ्य तथा पोषण संबंधी सुविधाओं में असमानता
भारत के समाज में अस्वास्थ्य और कुपोषण की भी भारी समस्या है। बचपन से ही लड़कियों को वे पोषक पदार्थ नहीं दिये जाते हैं जो लड़कों को दिये जाते हैं। महिलाएं स्वयं भी अपने शरीर की रक्षा व अपने स्वास्थ्य पर कम ध्यान दे पाती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में तो महिलाओं के स्वास्थ्य की स्थिति और भी चिंताजनक है। प्रायः घर में महिलाएं अपने पति व बालकों के लिए उसका भोजन बनाती हैं और जो बच जाता है उसे खाती हैं। रात के बचे हुए भोजन को भी वे दूसरे दिन खाती हैं। मातृत्व का भार भी महिलाओं पर सबसे ज्यादा है। वे शारीरिक व्यायाम भी प्रायः कम ही करती हैं। ज्यादातर महिलाओं में खून की कमी होती है। निर्धन परिवारों की महिलाएं तो धन बचाने के चक्कर में बीमारी आदि में भी पैसा व्यय नहीं करती हैं। भारतीय परिवारों में अभी भी कई परिवार हैं जहाँ परिवार नियोजन की जागृति नहीं है परिणामस्वरूप महिलाएं अनेक संतानों को जन्म देने को मजबूर होती हैं। इस प्रकार महिलाओं के स्वास्थ्य व पोषण की असमानता भारतीय समाज व्यवस्था में दिखाई देती है।
(5) महिलाओं के यौन शोषण तथा उत्पीड़न का आधिक्य
भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों की निम्न स्थिति के कारण उनकी सबसे प्रमुख समस्या उनका यौन शोषण व यौन उत्पीड़न है। ये हमें निम्नलिखित रूपों में दिखाई देते है-
(अ) वेश्यावृत्ति
अनेक स्त्रियाँ आर्थिक कारण व बेसहारा होने के कारण दलालों द्वारा इस पेशे में आने के लिए बाध्य की जाती हैं। झूठी शादी के द्वारा या प्रेमी द्वारा झूठे आश्वासनों में फंसाकर या अपहरण कर अनेक स्त्रियों को इस पेशे में धकेल दिया जाता है। वेश्यावृत्ति से समाज का अधोपतन होता है तथा महिलाओं की वेश्यावृत्ति के कारण अनेक संभोगजनित रोगों से स्वास्थ्य पर कुप्रभाव पड़ता है।
(ब) देवदासी प्रथा
कर्नाटक व आन्ध्र प्रदेश के येलम्मा और पोथम्मा के ऐसे मंदिर हैं जहाँ बड़ी संख्या में प्रतिवर्ष देवदासियों के रूप में लड़कियों को समर्पित किये जाने की प्रथा है। परम्परा की दृष्टि से देवदासियों का कार्य देवता की सेवा करना है परन्तु वे पुजारी, गाँव के जमींदारों सम्पन्न लोगों की यौन पिपासा का शिकार बनती हैं। कानून द्वारा देवदासी प्रथा का उन्मूलन कर दिया गया है किन्तु अभी भी इसका कुछ छिपा हुआ अस्तित्व शेष है।
में बिक रहा है।
(द) विज्ञापन
आजकल वस्तु के उत्पाद को विज्ञापित कर अपना व्यवसाय बढ़ाने हेतु नारी देह का व उसके उत्तेजक हाव-भावों का प्रदर्शन विज्ञापन व मॉडलिंग में हो रहा है। ये सिद्ध करता है कि स्त्री की देह प्रदर्शन व बाजार की वस्तु हो गई है। नारी गरिमा के विपरीत यह कृत्य प्रसार पाता जा रहा है।
(ई) चलचित्र
अधिकांश चलचित्र यौन शोषण के उदाहरण हैं व्यावसायिक रूप से इनमें अर्द्धनग्न स्त्रियों के कैबरे, नृत्य, गाने कामुक दृश्य, उत्तेजक दृश्यों का अप्रतिबंधित प्रदर्शन नारी प्रतिष्ठा पर कुठाराघात है।
(फ) कैबरे नृत्य
महानगरों में रेस्तरों और होटलों आदि में कैबरे के नाम पर नग्नता फैली हुई है। शराब की गंध, सिगरेट के धुएं तथा मध्यम रोशनी में उत्तेजक संगीत के साथ डांसर की कामुक मुद्राएं यह प्रमाणित करती हैं कि धन के लिए आज भी महिलाएं उसी प्रकार नचाई जा रही हैं जैसे सदियों पहले नचाई जाती थीं।
(ग) छेड़छाड़
स्त्री के दैहिक समस्याओं में सर्वप्रमुख समस्या उनका छेड़छाड़ का शिकार होना है। उन पर आवाज कसना, उनके अंग स्पर्श करना, उन्हें कुत्सित इशारे करना उनके साथ बलात्कार आदि की घटनाएं नारी उत्थान व समानता की दिशा में कलंक है।
(6) दहेज के कारण महिला उत्पीड़न
भारतीय समाज में स्त्री के विवाह में दहेज की प्रथा के कारण लड़कियाँ माता-पिता पर बोझा हैं। दहेज न लाने वाली विवाहितों पर अत्याचार तथा उनके आत्महत्या करने के समाचार आए दिन सुनाई देते हैं। दहेज की कुंप्रथा सामाजिक अभिशाप है तथा नारी कल्याण की दिशा में बड़ा रोड़ा हैं।
(7) तलाक द्वारा महिला उत्पीड़न
विवाह विच्छेद कर भारतीय समाज में प्रायः महिलाओं को बेसहारा छोड़ दिया जाता है। अधिकतर समाज में कानूनी तलाक के स्थान पर स्त्रियां परित्यक्ता बन एकाकी जीवन जीने को विवश हो जाती हैं। मुस्लिम समाज में तीन बार तलाक बोलकर पत्नी को तलाक देने की प्रथा महिलाओं पर अत्याचार है। हालाकि अब भारत सरकार के प्रयास पर इसे रोकने के लिए कानून बनाए गये है।
(8) वैधव्य के संबंध में दोहरे मापदंड
स्त्री के लिए भारतीय सामाजिक व्यवस्था में वैधव्य भयानक शब्द है। पति की मृत्यु के बाद शताब्दी पूर्व तक सती प्रथा थी परन्तु अब विधवा स्त्रियाँ बेसहारा होकर संयमी तपस्वी जीवन जीकर घर की बड़ी बूढ़ियों के तानों को सुनकर दुखमय जीवन या भीख माँगने की स्थिति के लिए विवश हैं। विधवा पुनर्विवाह का कम प्रचलन होने से नारी जीवन दूभर हो गया है।
(9) स्त्रियों के प्रति हिंसा
घरेलू हिंसा तथा घर के बाहर की हिंसा से भारतीय महिलाओं को प्रायः दो चार होना पड़ता है। शराबी पति द्वारा पत्नियों व लड़कियों से मारपीट करना अपशब्द कहना तथा घर के बाहर पुलिस कस्टडी में स्त्री पर यौन अत्याचार, असामाजिक व गुंडे तत्त्वों द्वारा यौन उत्पीड़न नारी सम्मान के विरुद्ध है।
(10) भ्रूण हत्या व स्त्री हत्या
कई समाज लडकी का जन्म अभिशाप मानते हैं तथा जन्म लेते ही बालिकाओं की हत्या कर दी जाती है। इतना ही नहीं कई घरों में ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न कर दी जाती हैं जिनसे मजबूर होकर स्त्री आत्महत्या कर लेती है या ऑनर किलिंग आदि के चलते उसकी हत्या कर दी जाती है। ऐसे कृत्य प्रदर्शित करते हैं कि जेंडर समानता अभी भी एक सपना है तथा वास्तविक धरातल से ये बहुत दूर है। बाल विवाह भी बालिकाओं की हत्या जैस एक प्रयास ही है।
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