4/05/2025

असामान्य व्यवहार के मनोवैज्ञानिक कारण

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असामान्य व्यवहार के मनोवैज्ञानिक कारण

असामान्य व्यवहार मानव की वह मानसिक स्थिति है जो उसे सांस्कृतिक और सामाजिक मापदंडो से अलग बनाती है। जिससे उसके सामाजिक संबंध प्रभावित होते है।

असामान्य व्यवहार के मनोवैज्ञानिक कारकों का व्यक्ति के व्यवहार पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। यदि किसी बालक को उसकी प्रारम्भिक अवस्था से उपयुक्त मनोवैज्ञानिक वातावरण नहीं मिल पाता तब उसमें अनेक प्रकार की मानसिक असामान्यायें उत्पन्न हो जाती है क्योंकि बालक मनोवैज्ञानिक वातावरण में ही समायोजन करना सीखता है। यदि मनोवैज्ञानिक वातावरण दोषपूर्ण होता है, तब उसका समायोजन भी दोषपूर्ण ही होगा। 

असामान्य व्यवहार के कुछ मुख्य कारण निम्नलिखित हैं--

1. मातृ वंचन (Maternal Depreviation) 

मातृ वंचन से तात्पर्य शिशु को अपनी माता के द्वारा मिलने वाले प्यार से वंचित रहने से होता है।

यदि किसी शिशु को उसकी माता द्वारा उपयुक्त प्यार नहीं मिलता तब उसमें अनेक प्रकार के मानसिक विकार उत्पन्न हो जाते हैं। अनेक सामाजिक, पारिवारिक एवं आर्थिक परिस्थितियों के कारण मातायें अपने शिशुओं को अपने से अलग कर देते हैं और वे बहुत समय तक माता से वंचित रह जाते हैं, जैसे नौकरी करने वाली महिलायें, अपने बच्चों को संस्थानों में छोड़ जाती हैं। इस विषय में किये गये एक अध्ययन के द्वारा यह पता चला कि परिवार में माता के पास रहने वाले तथा माता से अलग शिशु संस्थानों में रहने वाले बच्चों में तुलना करके यह पाया गया कि शिशु संस्थानों के एक वर्ष की आयु के बच्चों में किसी के प्रति कोई अनुराग नहीं था। एक अन्य अध्ययन में बोलकिण्ड में यह पाया गया कि यदि एक वर्ष से अधिक समय तक शिशु को उसकी माता से अलग रखा जाये तब उसमें अनेक प्रकार की असामान्यताओं के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। वेरिस और आवर्स ने एक अध्ययन में यह पाया कि शिशु को यदि बाल्यकाल से लेकर 17-18 वर्ष की आयु तक संस्थानों में रखा जाये तब उसमें मनोविक्षिप्तता, मानसिक दुर्बलता, मनस्ताप तथा व्यवहार सम्बन्धी विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।

अनिच्छित संतान के मामले में मातायें बहुधा अपने बच्चों को अधिक तिरस्कृत, दण्डित और प्रताड़ित करती हैं जिसके परिणामस्वरूप बालक में तनाव, असन्तोष और जिद के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। माता के तिरस्कारपूर्ण व्यवहार के कारण बालक में हीनता की भावना, आक्रामकता, असुरक्षा की भावना तथा चिन्ता जैसे असामान्यता के लक्षण परिलक्षित होने लगते हैं।

2.पारिवारिक प्रतिमानों की विकृति

व्यक्ति अपनी समस्त प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति अपने परिवार में रहकर ही करता है। अतः पारिवारिक वातावरण का उसके व्यवहार पर प्रभाव पड़ना भी स्वाभाविक है। यही कारण है कि यदि परिवार के प्रतिमानों के स्वरूप में विकृति होती है तो बालक के व्यवहार में अनेक प्रकार की असामान्यताओं के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। पारिवारिक प्रतिमानों से सम्बन्धित कुछ मुख्य मनोवैज्ञानिक कारकों का विवरण निम्नलिखित है-

(1) तिरस्कार

माता-पिता द्वारा तिरस्कृत बालक के व्यवहार में भय, असुरक्षा, ईर्ष्या, विरोध, स्नेह प्राप्त करने की अतिरंजित आकांक्षा आदि असामान्यताओं के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। तिरस्कार के कारण बालक में झूठ बोलने की आदत तथा चोरी करने, भयभीत होने और आक्रामकता की भावना उत्पन हो जाती है। अतः तिरस्कार असामान्यता का एक महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक कारक है।

(2) अतिसंरक्षण

अतिसंरक्षण से अभिप्राय बालक को आवश्यकता से अधिक मात्रा में नियन्त्रण में रखने से है, जैसे अनेक माता-पिता अपने बच्चों को छोटी-छोटी जोखिम उठाने से भी रोकते हैं, दूसरों के पास जाने से भी मना करते हैं। इस प्रकार का संरक्षण अतिसंरक्षण कहलाता है। जिसके कारण बालक में आत्म-विश्वास एवं आत्म-निर्भरता की भावना उत्पन्न नहीं हो पाती तथा बालक जिद्दी, स्वार्थी, असंयमी, भयग्रस्त, आश्रित, दमित, आक्रामकता आदि लक्षणों से युक्त हो जाते हैं। इस प्रकार अति संरक्षण भी असामान्य व्यवहार का एक मनोवैज्ञानिक कारक होता है।

(3) उचितानुचित इच्छाओं की पूर्ति

माता-पिता द्वारा बच्चों की उचित अनुचित सभी प्रकार की इच्छाओं की पूर्ति करना भी बच्चों के असामान्य व्यवहार का कारण होता है। माता-पिता द्वारा आवश्यकता से अधिक छूट देने पर भी बालक समाज विरोधी तथा आक्रमक स्वभाव के हो जाते हैं।

(4) अयथार्थ चाह

अयथार्थ इच्छाओं से तात्पर्य माता-पिता द्वारा बालक की क्षमता से अधिक अपेक्षाएँ रखने से है। माता-पिता का इस प्रकार का व्यवहार बालक पर दबाव बढ़ाता है। अतः उसमें भय तथा चिन्ता की भावना उत्पन्न हो जाती है। वे अत्यधिक कुण्ठाग्रस्त तथा आत्म-अवमूल्यन की भावना से ग्रस्त हो जाते हैं जिसके कारण बालक अनेक प्रकार से असामान्य व्यवहार करने लगते हैं।

(5) दोषपूर्ण अनुशासन

कुछ माता-पिता की यह धारणा है कि बालक को यदि दण्ड न दिया जाये तो वे बिगड़ जाते हैं। इस प्रकार के माता-पिता दण्ड देने को ही अनुशासन समझते हैं। दूसरी ओर कुछ माता-पिता यह सोचते हैं कि बालक को किसी भी प्रकार के कार्य के लिए अथवा दोष के लिये दण्ड नहीं देना चाहिये। वास्तव में ये दोनों धारणायें ही दोषपूर्ण हैं और इस प्रकार किया गया अनुशासन दोषपूर्ण अनुशासन होता है। इस प्रकार के दोषपूर्ण अनुशासन के कारण बालकों में अनेक प्रकार की असामान्यताओं के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। अनेक अध्ययनों द्वारा यह ज्ञात हुआ है कि अधिक कड़े अनुशासन के कारण बालक आक्रामक तथा नियमों को तोड़ने वाला बन जाता है तथा अनुशासन की ढिलाई के कारण उनमें स्वच्छन्ता की भावना पैदा हो जाती है।

(6) दोषपूर्ण पारस्परिक व्यवहार अथवा संवेदनशीलता

परिवार के सदस्यों की पारस्परिक बातचीत यदि दोषपूर्ण ढंग से होती है तब वह बालक के असामान्य व्यवहार का एक कारण बन जाती है। परिवार के सदस्यों की पारस्परिक बातचीत के गलत ढंग के कारण बालक में अविश्वास, घुटन और अलगाववादी विचार पनपने लगते हैं, जो असामान्य व्यवहार को बढ़ाने में सहायक होते हैं।

3. पारिवारिक प्रारूप सम्बन्धी कारक

बालकों के असामान्य व्यवहार के लिए परिवार की संरचना भी एक महत्वपूर्ण कारक होता है। बालक अपनी समस्त प्राथमिक आवश्कताओं की पूर्ति अपने परिवार में रहकर ही करता है। यदि पारिवारिक स्थिति दोषपूर्ण है तब बालकों में अनेक प्रकार की असामान्यतायें उत्पन्न हो जाती हैं। माता-पिता के पारस्परिक कलह के कारण बालकों में संवेगात्मक तनाव बना रहता है जिससे मानसिक विकारों के होने की सम्भावना रहती है। कुछ परिवारों में समाज विरोधी कार्य होते हैं जिससे बच्चे धोखाधड़ी और बेईमानी जैसे असामान्य व्यवहार सीखते हैं। कुछ परिवार विखण्डित परिवार होते हैं जिनमें माता-पिता का तलाक हो जाता है, ऐसे परिवारों में बच्चों को माता-पिता का उचित संरक्षण प्राप्त न होने के कारण उनका व्यवहार असामान्य हो जाता है। 

4. प्रारम्भिक जीवन के मानसिक आघात

कभी-कभी अनेक असामान्य व्यवहारों का मनोवैज्ञानिक कारण बालक की प्रारम्भिक अवस्था में लगा कोई आघात भी होता है। जीवन की बाल्यावस्था में किसी आघात पूर्ण घटना का बालकों के असामान्य व्यवहार पर अत्यधिक प्रभाव होता है जिसे शैशवावस्था में यदि किसी बालक की माता का स्वर्गवास हो जाये तो वह घटना बालक के लिए आघातपूर्ण सिद्ध होती है। ऐसे आघातों के कारण बालक के व्यवहार में अनेक प्रकार की असामान्यताएँ उत्पन्न हो जाती हैं।

5. किशोरावस्था के लिये अपर्याप्त तैयारी

किशोरावस्था व्यक्ति के जीवन की सबसे अधिक जटिल अवस्था होती है। यदि इस अवस्था में व्यक्ति पर्याप्त तैयारी करके सन्तुलित अवस्था में नहीं रहता तो उसका व्यवहार असामान्य हो जाता है। इस अवस्था में व्यक्ति की संवेगात्मक अस्थिरता एवं अति संवेगात्मकता बाल्यावस्था की अपेक्षा अधिक होती है। किशोरावस्था में व्यक्ति के समक्ष अनेक प्रकार की जटिल समस्यायें उत्पन्न होती हैं जिसमें मुख्यतः अनुपयुक्त पारिवारिक सम्बन्ध, पारिवारिक जनों का अत्यधिक हस्तक्षेप, नवीन परिस्थितियों में कुसमायोजन, विद्यालय की असफलतायें, सैक्स की समस्या तथा रोमांस आदि हैं। ये समस्यायें किशोरावस्था में संवेगात्मकता की अस्थिरता के कारण उत्पन्न होती है जिनके कारण व्यक्ति का व्यवहार असामान्य हो जाता है। अतः किशोरावस्था की अपर्याप्त तैयारी भी असामान्यता का एक मनोवैज्ञानिक कारक है।

6. विकृत अन्तः वैयक्तिक सम्बन्ध अन्त: 

वैयक्तिक सम्बन्धों से तात्पर्य पति-पत्नी, माता-पिता, पुत्र-पिता आदि के बीच घनिष्ठ भावात्मकता से होता है। इनमें सबसे अधिक अन्तः वैयक्तिक घनिष्ठ सम्बन्ध पति-पत्नि के बीच होता है। यदि परिवार में पति-पत्नी के सम्बन्धों में विकृति आ जाती है तब परिवार कुसमायोजित हो जाता है जिसके कारण पारिवारिक वातावरण अशान्त और तनावपूर्ण हो जाता है। अतः अन्तःवैयक्तिक सम्बन्धों की विकृति भी असामान्य व्यवहार का एक मनोवैज्ञानिक कारक होता है।

7. तीव्र मनोवैज्ञानिक परिस्थितियाँ

मनोवैज्ञानिक परिस्थितियाँ अथवा प्रतिबल भी असामान्यता के कारण होते हैं। इन मनोवैज्ञानिक प्रतिबलों की उत्पत्ति अन्तर्द्वन्द्व तथा कुण्ठा के द्वारा होती है। कुण्ठाओं के द्वारा व्यक्ति में आत्म अवमूल्यन उत्पन्न हो जाता है जिसके द्वारा तीव्र प्रतिबल की उत्पत्ति होती है। इस सम्बन्ध में प्रतिबल के भावार्थ को स्पष्ट कर देना भी आवश्यक 

है। कोलमैन ने प्रतिबल के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा है, "किसी व्यक्ति या समूह के प्रतिरूप (आदर्श) व्यवहार के लिये कोई भी समायोजन सम्बन्धी माँग ही प्रतिबल है।" इस प्रकार व्यक्ति के जीवन में अनेक प्रकार के मनोवैज्ञानिक प्रतिबल उसके व्यवहार को प्रभावित करते हैं। व्यक्ति के जीवन में हीनता की भावना जागृत हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप उसमें आत्म अवमूल्यन की सम्भावना रहती है। व्यक्ति की बार-बार असफलताओं से उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा एवं सुरक्षात्मक भावना को धक्का पहुँचता है जिसके कारण भी व्यक्ति असामान्य व्यवहार करने लगता है।

इनके अतिरिक्त व्यक्तिगत परिसीमाओं का भी व्यक्ति पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है।

व्यक्ति में बुद्धि की कमी, विशिष्ट योग्यताओं का अभाव, शारीरिक बनावट में कमी, अपंगता आदि उसकी व्यक्तिगत परिसीमायें हैं जिनके कारण व्यक्ति अपने आपको दूसरों से तुच्छ समझने लगता है तथा आत्म-अवमूल्यन का अनुभव करता है।

पाप और अपराध की भावनाओं से भी आत्म-अवमूल्यन में कमी आती है। जिससे व्यक्ति में धोखा देना, चोरी करना, झूठ बोलना आदि कुप्रवृत्तियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।

अन्तर्द्वन्द्व भी व्यक्ति के अन्दर तीव्र मनोवैज्ञानिक प्रतिबल उत्पन्न होने का एक कारण है। इस प्रकार स्पष्ट है कि अनेक प्रकार के मनोवैज्ञानिक कारण व्यक्ति के व्यवहार में असामान्यता के लिए उत्तरदायी होते हैं।

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