2/11/2022

राज्य की उत्पत्ति का सामाजिक समझौता सिद्धांत

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प्रश्न; राज्य की उत्पत्ति संबंधी सामाजिक संविदा सिद्धांत का वर्णन कीजिए और इसके आलोचनात्मक पक्षों का विश्लेषण कीजिए। 

अथवा" सामाजिक अनुबंध सिद्धान्त को उसकी प्रकृति और विशेषताओं सहित पूर्णतया समझाइये। 

अथवा" हाॅब्स के सामाजिक समझौता के सिद्धान्त का वर्णन कीजिए। 

अथवा" लाॅक के सामाजिक समझौता सिद्धांत की व्याख्या कीजिए। 

अथवा" रूसों के सामाजिक समझौता  सिद्धांत की विवेचना कीजिए।

अथवा" सामाजिक समझौता सिद्धान्त केवल काल्पनिक सिद्धान्त हैं। व्याख्या कीजिए। 

अथवा" सामाजिक समझौता सिद्धान्त ऐतिहासिक, दार्शनिक तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गलत हैं। समझाइये। 

अथवा" राज्य की उत्पत्ति के सामाजिक समझौता के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।

अथवा" राज्य की उत्पत्ति के सामाजिक समझौते का सिद्धान्त क्या हैं? इसकी आलोचनात्मक विवेचना कीजिए। 

अथवा" राज्य की उत्पत्ति के सामाजिक संविदा सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। 

अथवा" राज्य की उत्पत्ति के सामाजिक अनुबंध सिद्धांत का वर्णन कीजिए।

उत्तर--

राज्य की उत्पत्ति का सामाजिक समझौता सिद्धांत

rajya ki utpatti ka samajik samjhauta siddhant;सामाजिक समझौते का सिद्धान्त राज्य की उत्पत्ति का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य ईश्वरीय संस्था न होकर एक मानवीय संस्था है। इस (समझौता) सिद्धान्त के अनुसार, राज्य का निर्माण व्यक्तियों ने पारस्परिक समझौते द्वारा किया है। समझौते से पूर्व व्यक्ति प्राकृतिक अवस्था में रहते थे। किन्हीं कारणों से व्यक्तियों ने प्राकृतिक अवस्था त्यागकर समझौते द्वारा राजनीतिक समाज की रचना की। इस समझौते से व्यक्तियों को सामाजिक अधिकार प्राप्त हुए। 

लीकॉक के अनुसार," राज्य व्यक्तियों के स्वार्थों द्वारा चालित एक ऐसे आदान-प्रदान का परिणाम था जिससे व्यक्तियों ने उत्तरदायित्वों के बदले विशेषाधिकार प्राप्त किये।" 

सामाजिक समझौता सिद्धान्त का विकास 

महाभारत के 'शान्तिपर्व' तथा कौटिल्य की पुस्तक 'अर्थशास्त्र' में इस स्थिति का वर्णन मिलता है कि अराजकता की स्थिति से त्रस्त होकर मनुष्यों ने परस्पर समझौते द्वारा राज्य की स्थापना की। 

यूनान में सोफिस्ट वर्ग ने सर्वप्रथम इस विचार का प्रतिपादन किया। इपीक्यूरिन विचारधारा वाले वर्ग तथा रोमन विचारकों द्वारा भी इसका समर्थन किया गया। मध्ययुग में मेनगोल्ड तथा थॉमस एक्वीनास द्वारा भी इसका समर्थन किया गया। सर्वप्रथम रिचार्ड हूकर ने वैज्ञानिक रूप में समझौते की तर्कपूर्ण व्याख्या प्रस्तुत की। डच न्यायाधीश प्रोशियस, पूफेण्डोर्फ तथा स्पिनोजा ने इसका समर्थन किया किन्तु इस सिद्धान्त का वैज्ञानिक और विधिवत् प्रतिपादन 'संविदावादी विचारक' हॉब्स, लॉक तथा रूसो द्वारा किया गया है।

सामाजिक समझौता सिद्धांत की मूल मान्यताएँ 

1. समझौते के पूर्व मानव जीवन का अस्तित्व था तथा उनके ही बीच समझौता हुआ। 

2. सामाजिक समझौता के द्वारा राज्य की स्थापना के पूर्व का समय प्राकृतिक अवस्था का था। प्राकृतिक अवस्था के संबंध में समझौता सिद्धान्त के प्रतिपादकों के दो मत हैं। कुछ विचारक प्राकृतिक अवस्था को अंधकार पूर्ण और कपटपूर्ण मानते हैं। यह अवस्था 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' की अवस्था थी। कोई कानून नहीं, कोई नैतिकता नहीं मनुष्य का जीवन एकाकी और पाशविक था। प्रत्येक समय व्यक्ति संघर्ष में था। अन्य विचारक प्राकृतिक अवस्था को आदर्श, सरलता और परम सुख की अवस्था मानते हैं जिसमें लोग स्वर्गिक आनंद का उपभोग करते थे। इन विचारकों के अनुसार प्राकृतिक अवस्था शांति तथा मैत्रीपूर्ण थी। यह मानव जीवन का स्वर्णिम काल था। प्राकृतिक अवस्था में किसी प्रकार का राजनीतिक संगठन नहीं था। मनुष्यों के पारस्परिक संबंध का नियमन अस्पष्ट प्राकृतिक नियमों द्वारा होता था। 

3. प्राकृतिक अवस्था में विभिन्न कारणों से अनेक असुविधाएँ पैदा होने लगीं अतः मनुष्यों ने समझौते द्वारा नागरिक समाज और राज्य की स्थापना की। समझौते की प्रकृति क्या थी, इस पर विचारकों में मतभेद हैं। हाॅब्स के अनुसार मनुष्यों ने जीवन की रक्षा के लिए, लाॅक के अनुसार मनुष्यों ने प्राकृतिक अवस्था की असुविधाओं को दूर करने के लिए और रूसो के अनुसार मनुष्यों ने सभ्यता की बढ़ती हुई पेचीदगी के कारण आपस में समझौता कर राजनीतिक संगठन का निर्माण किया। कुछ विचारक एक समझौते का तथा कुछ अन्य विचारक दो समझौतों का होना स्वीकार करते हैं। 

4. समझौते के परिणामस्वरूप नागरिक समाज का निर्माण हुआ, राज्य का जन्म हुआ और प्राकृतिक कानूनों के स्थान पर राज्य के कानून निर्मित हुए। समझौते के स्वरूप के विषय में दो मत हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार समझौता करते हुए लोगों को अपने समस्त अधिकार त्याग देने पड़े। अन्य विद्वानों के अनुसार समझौता के कारण लोगों को केवल कुछ ही अधिकार त्यागने पड़े। कुछ विचारकों के अनुसार एक ही समझौता हुआ तो कुछ के अनुसार दो समझौते हुए। लेकिन इस बात से सभी समझौता सिद्धान्त के समर्थक विचारक सहमत हैं कि समझौता के बाद प्राकृतिक अवस्था के स्थान पर लोगों को सुरक्षा प्राप्त हुई और समझौते द्वारा राज्य का निर्माण हो गया। 

5. समझौता सिद्धान्त के अनुसार जिन उद्देश्यों के लिए समझौता किया गया यदि वे उद्देश्य पूरे नही होते तो समझौता तोड़ा जा सकता हैं। कुछ विचारकों ने समझौता तोड़ने का उद्देश्य व्यक्ति की आत्मरक्षा की प्रवृत्ति को बतलाया हैं। लाॅक के अनुसार प्राकृतिक कानूनों की व्याख्या और क्रियान्वयन तथा रूसों के अनुसार समाज के सामान्य हितों की पूर्ति न होगा। समझौता तोड़ने का आधार हैं।

हाॅब्स का सामाजिक समझौता सिद्धांत 

ब्रिटिश नागरिक हॉब्स (1588-1679) का जीवन काल राजनीतिक उथल-पुथल का काल था जिसका हॉब्स के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उसने इंग्लैण्ड का गृहयुद्ध (1642-1649) देखा, इंग्लैण्ड के राजा चार्ल्स प्रथम का मृत्यु दण्ड (1649) देखा और इसी पृष्ठभूमि से प्रभावित हो उसने 1651 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'लेवियाथन' में राजाओं की निरंकुशता को उचित ठहराते हुए सामाजिक समझौता सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उसने अपनी पुस्तक 'लेवियाथान' में इस सिद्धान्त का वर्णन किया हैं--

1. प्राकृतिक अवस्था एवं मनाव-स्वभाव 

हाॅब्स का कथन है कि उत्पत्ति के पूर्व मनुष्य प्राकृतिक रूप से जंगली अवस्था मे रहता था। मनुष्य स्वभाव से झगड़ालू, स्वार्थी, संघर्षप्रिय और असामाजिक था सभी एक-दूसरे के साथ संघर्षरत थे। जीवन एकाकी, दीन, अपवित्र, पार्श्वक और क्षणिक होता था। 

2. सामाजिक समझौते की अवस्था 

निरन्तर संघर्ष ऊबकर मनुष्यों ने आपस में समझौता कर उस दशा का अंत कर दिया। इस समझौते में दो बातें ध्यान देने योग्य हैं-- 

(अ) राजा स्वयं समझौता करने वालों में नहीं हैं अतः स्वयं पूर्ति से बंधा हुआ नहीं है,

(ब) समझौता करने वाले व्यक्तियों ने अपने सार अधिकारों को समझौते के बाद राजा को सौंप दिये हैं वे विरोध नहीं कर सकते हैं। 

3. नवीन राज्य का स्वरूप 

हाॅब्स ने समझौता के द्वारा एक ऐसे निरंकुश राजतंत्र की स्थापना की जिसका शासन संपूर्ण शक्ति सम्पन्न हैं और जिसका प्रजा के प्रति कोई कर्त्तव्य नहीं हैं व प्रजा को विद्रोह करने का अधिकार नहीं हैं। 

जाॅन लाॅक का सामाजिक समझौता सिद्धांत 

हाॅब्स की तरह लाॅक भी एक अंग्रेज दार्शनिक एवं राजशास्त्री था, यद्यपि दोनों के समय में बहुत अधिक अंतर नहीं है। यद्यपि उसके विचार हाॅब्स के विपरीत थे क्योंकि लाॅक के समय की परिस्थितियाँ हाॅब्स की परिस्थितियों से भिन्न थी तथा दोनों प्रतिबद्धताएँ भी अलग-अलग थी। हाॅब्स ने ब्रिटेन का गृहयुद्ध देखा था किंतु लाॅक के समय तक ब्रिटेन की संसद राजा की निरंकुशता के विरूद्ध विजयी हो चुकी थी। लाॅक ने 1688 की गौरवशाली क्रांति, और उसके परिणामस्वरूप जेम्स द्वितीय को राडगद्दी से उतरते देखा था। लाॅक ने सन् 1688 की क्रांति को औचित्यपूर्ण सिद्ध करने के लिए समझौता सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। लाॅक के समझौता संबंधी विचारों की व्याख्या निम्न प्रकार से की जा सकती हैं-- 

1. मानव स्वभाव की धारणा 

हाॅब्स मनुष्य में केवल शाशविक प्रवृत्तियों का दर्शन करता है किन्तु लाॅक उसके मानवीय गुणों पर बल देता है। लाॅक के अनुसार मनुष्य की बड़ी विशेषता बुद्धिमान तथा विचारवान प्राणी होना है। वह अपनी विवेक बुद्धि से एक नैतिक व्यवस्था की सत्ता स्वीकार करता है और इसके अनुसार कार्य करना अपना कर्तव्य समझता हैं। उसमें दूसरों के प्रति सहानुभूति, प्रेम और दयालुता के गुण होते हैं।

संक्षेप में, लाॅक की कल्पना का मनुष्य हाॅब्स की कल्पना के मनुष्य की तरह केवल स्वार्थी ही नही होता वरन् वह परमार्थी होता है। 

2. प्राकृतिक अवस्था 

हाॅब्स ने मनुष्य को घोर स्वार्थी बतलाया था तथा प्राकृतिक अवस्था को तदनुसार सतत् संघर्ष और युद्ध की दशा माना था। परन्तु लाॅक ने मनुष्य को स्वभावतः परमार्थी, दयुलु, सहयोगी व समाजप्रिय माना है तथा उसी के अनुसार उसकी प्राकृतिक अवस्था की कल्पना भी इस प्रकार की है जिसमें मनुष्य 'पारस्परिक युद्ध' की अवस्था में न रहकर 'पारस्परिक-सहयोग' की अवस्था में रहते हैं। लाॅक की प्राकृतिक अवस्था की कई विशेषताएं हैं-- 

(अ) प्रथम, प्राकृतिक अवस्था में सभी मनुष्य समान हैं क्योंकि सभी सृष्टि के एक ही स्तर पर और सब एक ही सर्वशक्तिमान और अनन्त बुद्धिसम्पन्न सृष्टा की कृतियाँ हैं। 

(ब) द्वितीय, प्राकृतिक अवस्था शांति व पारस्परिक सद्भावना पर आधारित होने के कारण सभी व्यक्ति समान व स्वतंत्र माने जाते हैं, कोई किसी को हानि पहुंचाने का प्रयत्न नहीं करता, सब समान रूप से प्राकृतिक समाज के लाभों को प्राप्त करते हैं और कोई किसी के अधीन नही होता। 

(स) तृतीय, प्राकृतिक अवस्था में लोग पूर्णतः स्वतंत्र होते है। किन्तु यह स्वतंत्रता स्वच्छन्दता या स्वेच्छाचारिता नहीं है क्योंकि प्राकृतिक अवस्था का नियंत्रण प्राकृतिक नियम हैं। 

3. सामाजिक समझौता की अवस्था 

श्रेष्ठ प्राकृतिक अवस्था के बावजूद निवासियों को कुछ परेशानियां जैसे-- नियम अस्पष्ट थे, नियमों की व्याख्या हेतु निष्पक्ष न्यायाधीश नही थे। नियमों को लागू करने वाली सत्ता का अभाव था। इन कारणों से व्यक्तियों ने समझौते की आवश्यकता महसूस की। लाॅक के अनुसार दो समझौते हुए। पहले के द्वार प्राकृतिक अवस्था का अंत करके समाज की स्थापना हुई। दूसरा समझौता व्यक्ति समूह और राजा के मध्य हुआ जिसके परिणामस्वरूप शासक को कानून बनाने, व्याख्या करने का अधिकार दिया गया, लेकिन शासक की शक्ति पर प्रतिबंध लगाया गया कि निर्मित कानून प्राकृतिक नियमों के अनुरूप होंगे। जनता को स्वतंत्रता, सम्पत्ति की रक्षा का अधिकार प्राप्त होगा। 

नवीन राज्य का स्वरूप 

संवैधानिक राज्य की स्थापना हुई। यदि शासक अपने उद्देश्य में विफल हो जाता है तो समाज को एक प्रकार की सरकार की जगह दूसरी सरकार स्थापित करने का अधिकार होगा। वास्तविक शक्ति जनता के हाथ में निहित होती हैं।

रूसो का सामाजिक समझौता सिद्धांत 

सामाजिक समझौता के विचारकों की त्रयी में रूसों का क्रम तीसरे विचारक के रूप में आता है। जहाँ, हाॅब्स और लाॅक अपने-अपने समय की राजनीतिक परिस्थितियों से प्रभावित थे और उन्होंने क्रमशः निरंकुश राजतंत्र तथा सीमित राजतंत्र समर्थन में अपने विचारों को व्यक्त किया वही रूसों के साथ ऐसी कोई स्थिति नही थी। पर यह माना जाता है कि उसके विचारों ने सन् 1789 ई. की फ्रांस की क्रांति के लिए उत्प्रेरक का काम किया तथा एक नवीन लोकतंत्रीय व्यवस्था के लिए मार्ग प्रशस्त किया। 1726 ई. में रूसों की प्रसिद्ध पुस्तक 'सोशल काॅन्ट्रेक्ट' प्रकाशित हुई। इसमें रूसों ने सामाजिक समझौते के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। रूसो ने सामान्य इच्छा के सिद्धांत के द्वारा सावयवयी समाज का विचार भी दिया हैं। 

रूसों ने अपनी पुस्तक 'द सोशल कान्ट्रेन्ट' में सामाजिक समझौता सिद्धांत की व्याख्या की हैं-- 

1. प्राकृतिक अवस्था एवं मानव स्वभाव 

रूसो की कल्पना के अनुसार, प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य पशु के समान जीवन व्यतीत करता था। वह पूर्ण रूप से स्वतंत्र था, उसके ऊपर किसी प्रकार का नियंत्रण नही था। शान्त, सरल और सुखमय जीवन था, आवश्यकताएं कम थीं धीरे-धीरे जनसंख्या में वृद्धि हुई, आवश्यकताएं बढ़ी और सम्पत्ति का अभ्युदय हुआ, स्वार्थ की भावना की उत्पत्ति एवं मानवगत बुराईयां आने लगी। 

2. समझौता 

सभ्यता के विकास के साथ, सम्पत्ति के उदय के साथ बुराइयों से निराकरण के लिए मनुष्यों ने आपस में समझौता किया। प्रत्येक व्यक्ति ने अपने अधिकार समाज को समर्पित कर दिये। इसे वह सामान्य इच्छा का नाम देता हैं। 

3. नवीन राज्य का स्वरूप 

राज्य का स्वरूप लोकतंत्रिक हैं। इसका आधार सामान्य इच्छा हैं। रूसो के अनुसार सम्प्रभुता संपूर्ण समाज अथवा जनता में निहित होती हैं।

सामाजिक समझौता सिद्धांत की आलोचना 

सामाजिक समझौता सिद्धान्त की राजनीतिक विचारकों द्वारा कटु आलोचना की गई है। ब्लंटशली ने इस सिद्धान्त को अत्यधिक भयंकर, वूल्जे ने 'सरासर झूठा' तथा ग्रीन ने इसे कपोल-कल्पना, कहकर सम्बोधित किया है। सर हेनरीमेन ने तो यहाँ तक कहा है कि," समाज तथा सरकार की उत्पत्ति के इस वर्णन से बढ़कर व्यर्थ की वस्तु और क्या हो सकती है।" वेग्थम सर फ्रेडरिक पोलक, वाहन, एडमण्ड वर्क आदि विचारकों ने भी इस सिद्धान्त की कटु आलोचना की है। इस सिद्धान्त की आलोचना ऐतिहासिक, दार्शनिक, तार्किक तथा वैज्ञानिक निम्नलिखित आधारों पर की गई है-- 

सामाजिक समझौता सिद्धांत की ऐतिहासिक आधार पर आलोचना 

ऐतिहासिक आधार पर आलोचना निम्न रूपों में की गई है-- 

1. समझौता अनैतिहासिक 

ऐतिहासिक दृष्टि से यह समझौता सिद्धान्त असत्य है क्योंकि इतिहास में कहीं भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलता कि आदिम मनुष्यों ने पारस्परिक समझौते के आधार पर राज्य की स्थापना की हो। इस सम्बन्ध में डॉ. गार्नर का कथन सत्य ही है कि," इतिहास में कोई ऐसा प्रामाणिक उदाहरण नहीं मिलता जिसके अनुसार ऐसे व्यक्तियों द्वारा, जिन्हें पहले से राज्य का पता नहीं था, अपने समझौते से राज्य की स्थापना की गई है।"  

2. प्राकृतिक अवस्था की धारणा गलत  

सामाजिक समझौता सिद्धान्त मानव इतिहास को दो भागों में विभाजित करता है-- 

(अ) प्राकृतिक अवस्था तथा (ब) सामाजिक अवस्था। 

ऐतिहासिक दृष्टि से यह विभाजन असत्य है, क्योंकि इतिहास में हमें ऐसी अवस्था का प्रमाण नहीं मिलता। जब मनुष्य संगठन-विहीन अवस्था में रहा हो।

3. राज्य विकास का परिणाम है, निर्माण का नहीं 

इतिहास से पता चलता है कि राज्य अन्य मानव संस्थाओं का धीरे-धीरे विकास हुआ है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य प्रारम्भ में परिवारों में, फिर कुलों, फिर कबीलों और जनपदों तथा राज्यों में संगठित हुआ। लाॅ फर के शब्दों में, " परिवार की भाँति ही राज्य समाज के लिए आवश्यक है और वह समझौते का नहीं वरन् वस्तुस्थिति के प्रभाव का परिणाम है।"

अतः सामाजिक समझौता सिद्धान्त के इस तथ्य को स्वीकार नहीं किया जा सकता कि राज्य का किसी एक विशेष समय पर निर्माण हुआ है। 

सामाजिक समझौता सिद्धांत की दार्शनिक आधार पर आलोचना

दार्शनिक आधार पर इस सिद्धान्त की आलोचना निम्न प्रकार की जाती है-- 

1. राज्य की सदस्यता अनिवार्य है, ऐच्छिक नहीं  

राज्य की सदस्यता ऐच्छिक नहीं वरन् अनिवार्य होती है। व्यक्ति उसी प्रकार राज्य के सदस्य होते है जिस प्रकार परिवार के। बर्क के शब्दों में, " राज्य को काली मिर्च, कहवा, वस्त्र या तम्बाकू अथवा ऐसे ही अन्य सामान्य व्यापार की साझेदारी समझौते के समान नहीं समझा जाना चाहिए जिसे अस्थायी स्वार्थ के लिए कर लिया गया हो और समझौते के पक्ष इच्छानुसार भंग कर सकते हों। इसे सम्मान की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। यह तो समस्त विज्ञान, समस्त कला, समस्त गुणों और समस्त पूर्णता के बीच साझेदारी है।" 

सामाजिक समझौता सिद्धान्त राज्य को ऐच्छिक समुदाय बताता है जो पूर्णरूपेण गलत है। 

2. राज्य और व्यक्ति के सम्बन्धों की अनुचित व्याख्या

सामाजिक समझौता सिद्धान्त राज्य और व्यक्ति के सम्बन्धों की गलत व्याख्या प्रस्तुत करता है। व्यक्ति और राज्य के पारस्परिक सम्बन्ध मानवीय स्वभाव पर आधारित होते हैं किसी समझौते पर नहीं। 

वॉन हॉलर के शब्दों में, " यह कहना कि व्यक्ति और राज्य में समझौता हुआ उतना ही युक्तिसंगत है जितना यह कहना कि व्यक्ति और सूर्य में इस प्रकार का समझौता हुआ कि सूर्य व्यक्ति को गर्मी दिया करे।" 

3. राज्य प्राकृतिक संस्था है 

सामाजिक समझौता सिद्धान्त के अनुसार, राज्य का निर्माण व्यक्तियों द्वारा किया गया है। अतः यह एक कृत्रिम संस्था है जबकि आलोचकों के अनुसार राज्य मानव के स्वभाव पर आधारित एक प्राकृतिक संस्था है। 

मालबर्न का कथन है कि," राज्य व्यक्तियों के बीच स्वेच्छा से किये गए समझौते से नहीं बना है। मनुष्यों को उन सामाजिक आवश्यकताओं से वाध्य होकर राज्य में रहना पड़ा, जिनसे वह बच नहीं सकता था।"

4. विद्रोह का पोषक

सामाजिक समझौता सिद्धान्त राज्य को व्यक्तिगत सनक का परिणाम बताकर विद्रोह, क्रान्ति तथा अराजकता का मार्ग प्रशस्त करता है। 

लाइवर के अनुसार, " इस सिद्धान्त को अपनाने से अराजकता फैलने का डर है। 

ब्लंटशली के अनुसार, " सामाजिक समझौता सिद्धान्त अत्यन्त भयानक है, क्योंकि यह राज्य और अन्य संस्थाओं को व्यक्तिगत सनक का परिणाम बताता है।" 

5. प्राकृतिक अवस्था में अधिकारों का अस्तित्व सम्भव नहीं 

लॉक का विचार है कि प्राकृतिक अवस्था में भी व्यक्ति प्राकृतिक अधिकारों का उपयोग करते थे किन्तु यह धारणा नितान्त भाम्रक है, क्योंकि अधिकारों का जन्म समाज में होता है तथा राज्य में रहकर ही अधिकारों का प्रयोग किया जा सकता है।" 

ग्रीन के शब्दों में, " प्राकृतिक अवस्था में, जो कि एक असामाजिक स्थिति होती है, अधिकारों की कल्पना स्वयं ही एक विरोधाभास है।" 

तार्किक आधार पर आलोचना

अतार्किक  

सामाजिक समझौता सिद्धान्त तार्किक दृष्टि से भी असंगत है। प्राकृतिक अवस्था में रहने वाले व्यक्तियों में जो कि राज्य संस्था से बिल्कुल अपरिचित थे, एकाएक ही राजनीतिक चेतना कैसे उत्पन्न हुई? यह बात समझ में नहीं आती है, क्योंकि राजनीतिक चेतना सामाजिक जीवन में ही उत्पन्न होती है, प्राकृतिक अवस्था में नहीं। कहावत है कि, " एक रात में चीता अपना नहीं बदल सकता।" 

सामाजिक समझौता सिद्धांत की वैधानिक आधार पर आलोचना 

वैधानिक आधार पर इस सिद्धान्त पर निम्न आक्षेप लगाये जाते हैं--

1. प्राकृतिक अवस्था में समझौता असम्भव 

आलोचकों के अनुसार, प्राकृतिक अवस्था में किये गये समझौते का वैधानिक दृष्टि से कोई महत्व नहीं है क्योंकि कोई समझौता तभी वैध होता है जब उसे राज्य की स्वीकृति प्राप्त हो जाती है लेकिन प्राकृतिक अवस्था में राज्य का अभाव होने के कारण समझौता वैध नहीं है। 

ग्रीन के शब्दों में, " समझौता सिद्धान्त में चित्रित प्राकृतिक स्थिति के अन्तर्गत कानूनी दृष्टि से कोई समझौता नहीं किया जा सकता है।" 

2. समझौता वर्तमान में लागू नहीं

कोई भी समझौता जिन निश्चित लोगों के मध्य होता है उन्हीं पर लागू होता है। कानूनी दृष्टि से किसी अज्ञात समय में अज्ञात व्यक्तियों द्वारा किया गया समझौता उसके बाद के समय और वर्तमान लोगों पर लागू नहीं किया जा सकता।

बेग्यम के अनुसार, " मेरे लिए आज्ञापालन आवश्यक है, इसलिए नहीं कि मेरे प्रपितामह ने तृतीय जार्ज के प्रपितामह से कोई समझौता किया था, वरन् इसलिए कि विद्रोह से लाभ की अपेक्षा हानि अद होती है। " 

सामाजिक समझौता सिद्धान्त का महत्व

समाजिक समझौता सिद्धान्त का राजनीतिक विचारों के इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान है--

1. सामाजिक समझौता सिद्धान्त ने राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धान्त का खण्डन किया जिसमें राज को ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता था। समझौता सिद्धान्त ने इस तथ्य का प्रतिपादन किया कि राज्य दैवीय नहीं वरन् मानवीय संस्था है।

2. सामाजिक समझौता सिद्धान्त ने इस सत्य का प्रतिपादन किया कि जनसहमति ही राज्य का आधार है, शक्ति अथवा शासक की व्यक्तिगत इच्छा नहीं। 

3. सामाजिक समझौता सिद्धान्त ने प्रभुत्व सम्बन्धी विचारधारा में महत्वपूर्ण योग दिया है। हॉब्स के विचारों के आधार पर ऑस्टिन ने वैधानिक सम्प्रभुता के विचार का प्रतिपादन किया। लॉक ने राजनीतिक प्रभुत्व के सिद्धान्त को प्रेरणा प्रदान की और रूसो के सामान्य इच्छा सम्बन्धी विचारों ने लोकप्रिय सम्प्रभुता की धारणा का प्रतिपादन किया।

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