2/12/2022

न्याय का अर्थ, परिभाषा, प्रकार

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प्रश्न; न्याय से आप क्या समझते हैं? न्याय और कानून में संबंध बताइए। 

अथवा" न्याय से क्या आशय है? न्याय की परिभाषा दीजिए। 
अथवा" न्याय क्या है? न्याय के प्रकार बताइए।
अथवा" न्याय और स्वतंत्रता में संबंध बताइए।
उत्तर--

न्याय का अर्थ (nyay kya hai)

न्याय अंग्रेजी भाषा के Justic (जस्टिस' का हिंदी रूपांतरण हैं। एक शाब्दिक रूप में 'जस्टिस' लैटिन भाषा के जस (Jus) शब्द से बना है। जिसका अर्थ है 'बंधना' या बाँधना इस प्रकार न्याय से तात्पर्य उस सामाजिक व्यवस्था से है जिसमें परस्पर संबंधों से बंधे रहते हैं। साधारण अर्थ में न्याय उस अवस्था का नाम है, जिसमें उचित व्यवस्था हो, व्यक्तिगत और सामाजिक संबंधों में सामंजस्य हो, निष्पक्षता, स्वार्थहीनता और तर्कसंगतता हो। जिसमें व्यक्ति अपने-अपने अधिकारों व कर्तव्यों का पालन करते हों। 

प्लेटो के अनुसार, " न्याय मानव आत्मा की उचित अवस्था और मानवीय स्वभाव की प्राकृतिक माँग है।"

न्याय शब्द की कोई एक सुनिश्चित परिभाषा प्रस्तुत करना थोड़ा कठिन हैं । प्रथम, न्याय शब्द को विभिन्न लोग विभिन्न समयों पर विभिन्न अर्थ प्रदान करते हैं। केवल यही नहीं, इसके निहितार्थ प्रत्येक व्यक्ति के मत में एवं परिस्थिति से दूसरी परिस्थिति में भिन्न होते हैं। दूसरे, न्याय का विचार गतिशील वस्तु की तरह हैं। ऐसी स्थिति में, इसके निहितार्थ समय के साथ परिवर्तित होते रहते है। जो अतीत में पहले कभी न्याय हुआ करता था वर्तमान में वह अन्याय हो सकता हैं। उसके व्यावहारिक रूपों के साथ न्याय के भाववाचक अर्थों की संगति स्थापित करने से एक और कठिनाई उत्पन्न होती हैं। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति नैतिक न्याय अथवा ईश्वरीय न्याय की बात कर सकता हैं, परन्तु व्यावहारिक मानकों के किसी नमूने के अनुरूप इसे बनाना कठिन है और इसी कारण यह व्यावहारिक रूप में लागू करने योग्य नही हैं। इसलिए, हम पाॅटर के इस मत का अनुमोदन कर सकते हैं कि," अधिकांश लोग ऐसा सोचते हैं कि वे न्याय का अर्थ समझते हैं परन्तु वास्तव में उनकी धारणाएँ अस्पष्ट सिद्ध होती हैं।" 

न्याय की धारणा के निम्नलिखित महत्वपूर्ण निहितार्थ हैं-- 

1. यह संकल्पना न्यायपूर्ण स्थिति की अपेक्षा करती है अर्थात् न्यायपूर्ण स्थिति की पूर्व-परिचितता के बिना कार्यों की न्यायोचितता का मूल्यांकन करना असंभव हैं। 

2. यह संकल्पना नैतिकता की स्थितियों से जुड़ी हैं। उदाहरणा के लिए, न्यायपूर्ण दौड़ वह है जिसमें जो व्यक्ति नैतिकतापूर्वक जीतता है वही जीत का अधिकारी हैं, परन्तु ऐसी दौड़ हो जिसमें धोखाधड़ी न हो, कोई व्यक्ति भागने के संकेत से पहले छलांग न लगाये, अथवा किन्हीं बुरी वस्तुओं (जैसे नशीली दवाओं) के प्रयोग से अनुचित लाभ न उठाए। 

3. यह संकल्पना लाभों व हानियों के सम्यक् वितरण का अर्थ भी प्रदर्शित करती है अर्थात् इसका मुख्य संबंध उस ढंग से है जिससे पुस्तकार तथा दण्ड किसी नियमानुसार व्यवहार में व्यक्तियों के बीच वितरित किये जाते हैं तथा निष्पक्षता के साथ इसका निकट संबंध यह संकेत देता है कि यदि कोई शासक अपनी प्रजा को तेल के कड़ाहे में उबाले और बाद में स्वयं भी उसमें कूद पड़े तो यह अन्याय के कृत्य की भाँति होगा, यद्यपि इसमें व्यवहार की असमानता नहीं होगी। 

4. यह संकल्पना साधारणतया अनुकूल वातावरण में ही विद्यामान रहती है जो प्रजातांत्रिक व्यवस्था ही प्रस्तुत कर सकती हैं, परन्तु अपवाद के रूप में यह गैर-प्रजातान्त्रिक व्यवस्था मे भी जीवित रह सकती हैं। "जो शासन बहुत कम राजनीतिक भागीदारी की अनुमति देते है उसमें न्यायसंगत नियम निष्पक्षतापूर्वक हैं।" जो शासन बहुत कम राजनीतिक भागीदारी की अनुमति देते है उनमें न्यायसंगत नियम निष्पक्षतापूर्वक लागू किये जा सकते हैं तथा बहुमत के शासन वाले प्रजातंत्र व्यक्तियों व अल्पसंख्यकों के साथ स्वेच्छाचारी व्यवहार कर सकते हैं।" 

फिर भी 'न्याय' शब्द की सुनिश्चित परिभाषा प्रस्तुत करने की समस्या से निपटते समय हमें सर्वोच्च तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि मामलों की जिस आदर्श स्थिति को लोग वास्तव में न्यायपूर्ण मानेंगे, न केवल इस विषय पर विभिन्न लोगों के विभिन्न विचार होते हैं, प्रत्येक व्यक्ति भी इस प्रकार के अनेक विचार रख सकता हैं। न्याय के संबंध में हमारे विचार तथा भावनाएँ दोहरी, तिहरी तथा मूल्यों की भिन्न व्यवस्थाओं के अनुसार, जिनके प्रति हमारी प्रतिक्रिया विभिन्न समयों पर और यहाँ तक कि समानान्तर रूप में सकारात्मक होती हैं, बहुमुखी भी हो सकती हैं। व्यक्तिगत विचारों के संदर्भ में न्याय अनेक पेंदों वाला बर्तन हैं या कम-से-कम ऐसा हो सकता है।

न्याय की परिभाषा (nyay ki paribhasha)

आधुनिक विद्वानों द्वारा न्याय की कतिपय परिभाषाएं निम्नलिखित हैं--

मैरियम के अनुसार," न्याय उन मान्यताओं और प्रक्रियाओं का योग हैं, जिनके माध्यम से प्रत्येक मनुष्य को वे सभी अधिकार व सुविधायें जुटाई जाती हैं जिन्हें समाज उचित मानता हैं।" 

रफल महोदय के अनुसार, "न्याय उस व्यवस्था का नाम है जिसके द्वारा व्यक्तिगत अधिकार की रक्षा होती है और समाज की मर्यादा भी बनी रहती है।"

बैन तथा पीटर्स के शब्दों में," न्यायपूर्वक कार्य करने का अर्थ है कि जब तक भेदभाव किये जाने का कोई उचित कारण न हो तब तक सभी व्यक्तियों से एक सा व्यवहार किया जाये। 

प्लेटो के शब्दों,"व्यक्तियो द्वारा अपने अपने कर्तव्यों के उचित पालन और दूसरों के काम में दखल ना करना ही न्याय है।" 

राॅबर्ट टकर के अनुसार," न्याय का अर्थ है कि जब दो पक्षों या सिद्धान्तों के बीच संघर्ष हो तो उसका समाधान इस तरह से किया जाये कि किसी भी पक्ष के उचित अधिकारों का हनन न हों।"

आर सी टॅकर  के अनुसार," दो परस्पर विरोधी पक्ष या सिद्धांतों के बीच उचित संतुलन बनाना न्याय का सारांश है।"

न्याय के प्रकार (nyay ke prakar)

समकालीन चिंतन में न्याय के संबंध में अनेक दृष्टिकोणों से विचार किया जाता है। प्राचीन समय में तो न्याय नैतिक एवं कानूनी आयाम तक सीमित था परन्तु वर्तमान में कानूनी न्याय, औपचारिक न्याय, प्राकृतिक न्याय, सामाजिक न्याय, आर्थिक न्याय और राजनैतिक न्याय की अवधारणाओं पर विचार किया जाता हैं। आधुनिक युग में विद्वानों ने न्याय के निम्नलिखित प्रकार बताए हैं-- 

1. सामाजिक न्याय 

सरल शब्दों में सामाजिक न्याय का तात्पर्य है समाज में व्यक्ति का सम्मान व्यक्ति होने के नाते होना है। अर्थात समाज में किसी तरह का भेद-भाव न होना है। सभी व्यक्तियों और वर्गों को विकास के समुचित अवसर का होना है। समाज में विभिन्न धर्मो जातियों और वर्गों के लोग रहते है। अतः यह आवश्यक है कि उनमें सामाजिक समानता का भाव हो। भारत में इसी दृष्टि से अस्पृश्यता के अंत की व्यवस्था की गयी है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 से 18 29 व 30 में सामाजिक न्याय की प्राप्ति का भाव है।

2. राजनीतिक न्याय 

राजनीतिक न्याय से आशय है सभी को राजनीतिक सहभागिता का समान अवसर प्राप्त होना। राजनीतिक न्याय की प्राप्ति के लिये ही वयस्क मताधिकार, निष्पक्ष चुनाव, सार्वजनिक पदों पर सभी को नियुक्त होने व चुने जाने का अवसर प्रदान किया जाता है। इसी दृष्टि से भाषण व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संघ व समुदाय तथा राजनीतिक दल गठित करने का और प्रचार की स्वतंत्रता प्रदान की जाती है राजनीतिक न्याय में स्वतंत्रता व समानता के मूल्य समाहित है। 

3. आर्थिक न्याय

इसका आशय है सभी को आर्थिक अवसरों की समानता हो ताकि व्यक्ति अपना-अपना आर्थिक विकास समुचित ढंग से कर सकें। आर्थिक न्याय को ध्यान में रखते हुये शोषण की मनाही और न्यायोचित पारिश्रमिक की व्यवस्था की जाती है। इसी भावना से सम्पत्ति के समान और समाजवादी दृष्टिकोण के प्रति झुकाव बढ़ा है और कल्याणकारी राज्य की विचारधारा का विकास हुआ है। 

4. कानूनी औपचारिक न्याय और प्राकृतिक न्याय 

जब दो पक्षों के परस्पर विरोधी दावों का फैसला करने के लिए या किसी व्यक्ति या संस्था के अधिकार एवं दायित्व निर्धारित करने के लिए प्रचलित कानून के अनुसार न्याय किया जाता हैं, तब उसे कानूनी न्याय कहते हैं। कानूनी न्याय में प्रकट रूप को ही सबसे बड़ा प्रमाण माना जाता है और उसे निष्पक्ष भाव से लागू किया जाता हैं, इसलिए यह औपचारिक न्याय की कोटि में आता हैं। 

5. प्राकृतिक न्याय 

मनुष्य को कुछ अधिकार प्रकृति से प्राप्त होते हैं, उन अधिकारों से उसे वंचित नहीं किया जाना चाहिए। यही प्राकृतिक न्याय हैं। जहाँ कानून मौन या अस्पष्ट हो वहाँ न्यायाधीश प्राकृतिक न्याय का सहारा लेते हैं। प्राकृतिक न्याय का मुख्य संबंध कानून के अलिखित भाग से हैं। जब किसी प्रश्न का उत्तर कानून की किताब में नहीं मिलता तब सहन वृद्धि का प्रयोग करते हुए न्यायाधीश कानूनों के पीछे छिपे हुए कानून को मान्यता देते है और उसके सिद्धान्तों को प्राकृतिक न्याय की संज्ञा दी जाती हैं। इसे प्राकृतिक न्याय इसलिए कहते हैं क्योंकि इसकी प्रामाणिता का स्त्रोत स्वयं प्रकृति हैं।

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न्याय और कानून 

सामान्यतः कानूनी अदालतों को न्याय का मंदिर कहा जाता है। न्याय और कानून दोनों ही सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने का प्रयास करते हैं। सामाजिक व्यवस्था के नियमों को तोड़ना अपराध माना जाता है। अपराधी को सजा दी जाती है ताकि अपराध से प्रभावित होने वाले व्यक्ति की भरपाई हो सके, साथ ही समाज को ऐसे गलत कामों से सुरक्षित रखा जा सके। इसका यह मतलब नहीं कि सभी कानून न्यायपूर्ण होते हों। उदाहरण के लिए, जब लोकमान्य तिलक को ब्रिटिश शासन के दौरान राजद्रोह के आरोप में सजा दी गई तो खुद को निर्दोष बताते हुए उन्होंने," उस सर्वोच्च सत्ता की चर्चा की जो सभी चीज़ों के भविष्य का निर्धारण करती है।" संभवतः वह उस प्राकृतिक न्याय की बात कर रहे थे जो सभी कानूनों का आधार है। महात्मा गांधी द्वारा नमक कानून को अन्यायपूर्ण बताने और लोगों से इसे तोड़ने का आह्वान करने के पीछे भी यही तर्क था।

न्यायपूर्ण होने का अर्थ है सच्चा होना न्याय कानून और सामाजिक नैतिकता का आधार है। न्याय के बिना ये टिक नहीं सकते। लेकिन न्याय और नैतिकता एक ही चीज़ नहीं है। उदाहरण के लिए, नैतिकता के विचार से आपको उदार और अहिंसक होना चाहिए। न्याय का इन बातों से खास मतलब नहीं है। नैतिकता का दायरा न्याय की तुलना में कहीं अधिक व्यापक है। 

अक्सर आँखों में पट्टी बाँधे खड़ी एक देवी की मूर्ति को न्याय का प्रतीक माना जाता है। इस देवी के हाथ में संतुलित तराजू होता है उसकी आँखों पर पट्टी इसलिए बँधी है कि उसे निष्पक्ष माना जाता है। गरीब, अमीर, ऊँचे कुल या नीचे कुल में पैदा होने वाले के बीच न्याय के मामले में कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। इस प्रकार निष्पक्षता न्याय की ज़रूरी शर्त है। क्या इसका मतलब यह है कि न्याय में बिल्कुल भी भेदभाव नहीं होना चाहिए।

न्याय तथा स्वतंत्रता में संबंध 

न्याय तथा स्वतंत्रता में परस्पर घनिष्ठ संबंध है। लेकिन यदि स्वतंत्रता का अर्थ प्रतिबंधों के अभाव से लिया जाता है तो इससे न्याय की अपेक्षा अन्याय को बल मिलता है। सभी बंधनों के अभाव से अन्याय का जन्म होता है न्याय का नहीं क्योंकि न्याय नियमों कानूनों, उचित प्रकार के बंधनों की उपस्थिति में पोषित होता है। वस्तुतः स्वतंत्रता सभी प्रकार के बंधनों का अभाव नहीं है बल्कि यह उचित बंधनों की व्यवस्था है। स्वतंत्रता का अर्थ ऐसे वातावरण के अस्तित्व से है जहाँ व्यक्ति को अपनी क्षमताओं के विकास का उचित अवसर प्राप्त होता है। स्वतंत्रता असीमित तथा अनियंत्रित नहीं होती बल्कि सीमित तथा मर्यादित होती है । न्याय की अवधारणा स्वतंत्रता को व्यापक बनाने पर बल देती है और इस दृष्टि से व्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाए गए उचित प्रतिबंधों का समर्थन करती है इसके विपरीत यदि व्यक्ति को असीमित स्वतंत्रता प्रदान की जाती है तो उसकी स्वतंत्रता अन्य व्यक्तियों की स्वतंत्रता के लिए घातक सिद्ध हो सकती है क्योंकि व्यक्ति मनमाने ढंग से आचरण करके दूसरे व्यक्तियों की स्वतंत्रता के लिए खतरा पैदा कर सकता है। न्याय का सिद्धांत ऐसी असीमित अनियंत्रित स्वतंत्रता का समर्थन नहीं करता। 

समानता तथा न्याय का संबंध 

न्याय की अवधारणा का समानता के सिद्धांत से भी गहरा संबंध है। समानता का अभिप्राय है कि सभी नागरिकों को विकास के समान अवसर प्राप्त हों। राज्य अपने सभी नागरिकों की शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा आदि के क्षेत्र में समान सुविधाएँ प्रदान करे। सभी नागरिकों को कानून के समक्ष समान समझा जाए तथा सभी नागरिकों को कानून का समान संरक्षण प्राप्त हो समानता की इन्हीं धारणाओं का न्याय समर्थन करता है और व्यवहार में समानता के ये ही सिद्धांत न्याय का आधार हैं।

स्वतंत्रता और समानता के पारस्परिक संबंध के संदर्भ में न्याय का सिद्धांत 

स्वतंत्रता तथा समानता के पारस्परिक संबंध तथा एक-दूसरे से दूरी से न्याय की स्थिति निर्धारित होती है। यदि स्वतंत्रता और समानता को एक दूसरे का विरोधी मान लिया जाए तो स्वतंत्रता समानता स्थापित नहीं कर सकती और समानता स्वतंत्रता को सुदृढ़ नहीं कर सकती। लेकिन गंभीरता से विचार करने पर स्पष्ट होता है कि स्वतंत्रता तथा समानता एक दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि पूरक हैं। समानता का अर्थ समान अवसरों की व्यवस्था तथा विशेषाधिकारों का अंत है, जबकि स्वतंत्रता सबके लिए अनुकूल वातावरण तथा अवसरों की व्यवस्था है।

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