2/11/2022

बहुलवाद क्या हैं? उत्पत्ति के कारण, विशेषताएं, आलोचना

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प्रश्न; बहुलवाद से आप क्या समझते हैं? विस्तृत वर्णन कीजिए।

अथवा" आधार का विश्लेषण कीजिए जिस पर बहुलवाद ने संप्रभुता सिद्धांत का खंडन किया। 

अथवा" संप्रभुता की बहुलवादियों द्वारा क्या आलोचना की जाती है। इस आलोचना का मूल्यांकन कीजिए।

अथवा" बहुलवाद क्या हैं? बहुलवाद के लक्षण या विशेषताएं बताइए। 

उत्तर--

बहुलवाद का अर्थ (bahulvad kya hai)

बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में एक नई विचारधारा का प्रादुर्भाव हुआ, जिसने वर्षों से चले आ रहे राज्य की सार्वभौमिकता के विचार को गहरा आघात पहुँचाया और उसे तहस-नहस कर डाला। राज्य की संप्रभुता को अमान्य ठहराने वाली यह विचारधारा हैं-- बहुलवाद। इस तरह बहुलवाद का उदय संप्रभुता को अद्वैतवादी धारणा के विरूद्ध हुआ। 

बहुलवाद परम्परागवाद संप्रभुता के सिद्धांत के खंडन के रूप में राजनीतिक विचारधारा है। जिसका उदय एकलवादी सिद्धांत जो राज्य को सर्वोत्तम मानता है की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ। एकलवादी राज्य को साध्य मानते है और उनका यह विचार है कि मनुष्य अपने व्यक्तित्व का विकास राज्य में रहकर ही कर सकता हैं। बहुलवादी विचारधारा के अनुसार राज्य न तो सर्वश्रेष्ठ व संप्रभु है और न ही कानून उसकी आज्ञा सर्वोपरि हैं। उसका मत है कि राज्य को संप्रभु कहना तथ्यों की अवहेलना, व्यक्तित्व के विकास में बाधाएं पहुंचाना तथा मनुष्य की आत्मा का हनन करना हैं। इसलिए लास्की का मत हैं," राजनीति विज्ञान के लिए यह चिरलाभ की बात होगी, यदि संप्रभुता का संपूर्ण विचार ही त्याग दिया जाये।" 

इस विचारधारा को स्पष्ट करते हुए मैक्सी ने कहा हैं," बहुलवादी यह मानते है कि संप्रभुता को पूर्ण रूप से समाप्त कर दिया जाये और राज्य को अन्य संस्थाओं के समतुल्य एक व्यवसायिक संगठन बना दिया जाये, जो केवल सामाजिक कार्य करें।" 

ये विचार राज्य को भी अन्य समुदायों की तरह एक समुदाय मानते है जो कि उनसे श्रेष्ठ नहीं हैं। 

प्रो. लास्की के शब्दों में राज्य और अन्य समुदायों में आधारभूत अंतर नहीं हैं। अतः अन्य समुदायों पर उनका कोई नियंत्रण नहीं होना चाहिए। सब अपने-अपने कार्य क्षेत्र में पूर्णतः स्वतंत्र होने चाहिए। 

बहुलवादी अराजकवादी नहीं हैं। वे राज्य के अस्तित्व को समाप्त करने के पक्ष में न होकर संप्रभुता को मानने से इंकार करते हैं। डाॅ. ओम नागपाल के शब्दों में," बहुलवादियों का उद्देश्य राज्य की शक्तियां कम करके उसके कार्यक्षेत्र को सीमित कर, समुदायों की शक्तियां बढ़ाना तथा मनुष्य को अधिक स्वतंत्रता प्रदान करना हैं।" 

वे राज्य का कार्य-क्षेत्र राजनीतिक क्रियाओं तक ही सीमित चाहते हैं। किन्तु बहुलवादी इस बात को स्वीकार करते है कि यदि राज्य विभिन्न समुदायों में सामंजस्य स्थापित नहीं करेगा तो समाज में समुदायों के परस्पर टकराव के कारण शांति व्यवस्था भंग हो जायेगी। 

इस प्रकार बहुलवाद का उदय संप्रभुता की परम्परावादी विचारधारा की प्रतिक्रियास्वरूप हुआ है। वह संप्रभुता की विरोधी नहीं है, बल्कि उसे कुछ सीमित करना चाहती हैं।

बहुलवाद की उत्पत्ति के कारण (bahulvad ki utpatti ke karan)

बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अनेक कारणों से बहुलतावादी धारणा का चलन हुआ, जो इस प्रकार हैं-- 

1. हीगलवादी राज्य के विरूद्ध प्रतिक्रिया 

बहुलतावादी विचारधार के उदय में हीगल के विचरों ने बड़ा सहयोग दिया। वस्तुतः यह विचारधारा हिगल के तथा उग्र राष्ट्रीयता के सिद्धांतों से राज्य को प्राप्त होने वाली असाधारण शक्ति के विरूद्ध होने वाली प्रतिक्रिया थी। हीगल ने राज्य को भगवान का रूप माना तथा व्यक्ति को दास बना लिया। हीगल की इस चरमतावादी धारणा की प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था और यह प्रतिक्रिया बहुलतावाद के रूप में हुई। 

2. अन्तर्राष्ट्रीय तत्व 

अन्तर्राष्ट्रीय भावना के विकास के कारण संप्रभु राज्य के सिद्धांत को भी भीषण युद्धों तथा अशांति का मूल कारण माना गया तथा प्रभुसत्ता को सीमित करने पर जोर दिया जाने लगा। 

3. व्यवहारवाद का अभ्युदय 

बहुलवाद की उत्पत्ति का एक कारण व्यवहारवाद का अभ्युदय भी हैं। इसके समर्थक जाॅन ड्यूई, विलियम जेम्स आदि विचारक हैं। व्यवहारवाद के अनुसार राज्य निरपेक्ष, पूर्ण तथा एक सत्ता नहीं है, यह परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न परिणाम उत्पन्न करने के कारण अनेक रूपों वाला होता है। लास्की ने मनोविज्ञान की इस धारणा को राजनीतिक चिंतन के क्षेत्र में लागू करते हुए कहा कि राज्य समाज के अन्य संगठनों की भाँति मानव-जीवन को पूर्ण एवं सुखी बनाने में लगा हुआ है। इस कार्य के लिए बनाये जाने वाले अनेक संगठनों में से एक हैं। 

4. प्रादेशिक प्रतिनिधित्व की प्रचलित व्यवस्था से असंतोष 

प्रारंभ में प्रचलित प्रतिनिध्यात्मक लोकतंत्रों में प्रादेशिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था को अपनाया गया। किन्तु शीघ्र ही इस व्यवस्था से असंतोष उत्पन्न हुआ और गिल्ड-समाजवादियों तथा संघवादी विचारकों ने व्यावसायिक या कार्यात्मक प्रतिनिधित्व की माँग प्रस्तुत की। व्यावसायिक प्रतिनिधित्व के समर्थक कोल आदि विचारकों ने बहुलतावाद के पोषण में पर्याप्त सहायता दी। 

5. विकेंद्रीकरण राज्य की धारण का उदय 

राज्य के विभिन्न कार्यों के केन्द्रीयकरण के दुष्परिणामों का वर्णन करते हुए वार्ड ने लिखा है कि," इससे केन्द्र को पक्षघात या लकवा तथा दूरवर्ती सिरों पर पाण्डु रोग हो जाता हैं।" बहुलतावादी राज्य की वर्तमान बुराईयों को दूर करने के लिए राज्य के अतिरिक्त अन्य समुदायों को भी अधिकार देकर विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करना चाहते हैं। 

6. गियर्क तथा मेटलैण्ड आदि का प्रभाव 

बहुलतावाद के विकास में गियर्क और मेटलैण्ड के व्यक्तिगत विचारों ने इस बात पर बल दिया कि मध्य युग में सामाजिक व्यवस्था में प्रभुसत्ता एक स्थान पर केन्द्रित नहीं थी। इस व्यवस्था में 'आर्थिक संघों' का प्रमुख स्थान था। अतः इन विचारकों ने मध्ययुगीन 'संघ व्यवस्था' की पुनारावृत्ति की माँग की। इन विचारकों ने राजनीतिक एकलवाद का विरोध करके बहुलतावादी समाज की स्थापना पर दिया।

बहुलवादियों द्वारा संप्रभुता सिद्धांत की आलोचना 

बहुलवादियों द्वारा संप्रभुता सिद्धांत की आलोचना निम्न आधारों पर की जाती हैं-- 

1. राज्य की क्षमता का अभाव 

आधुनिक समाज जटिलता की ओर बढ़ता जा रहा है इसलिए राज्य के हित के सभी कार्य नहीं कर सकता। ऐसी दशा में राज्य को चाहिए कि वह अपने बहुत से कार्य व्यवसायिक संगठनों को सौंप दे ओर प्रशासकीय कार्यों को सम्पन्न करने में कुशलता प्राप्त करे। 

2. राज्य सत्ता की केवल कल्पना 

कुछ विद्वानों ने कहा है कि राज्य की प्रभुसत्ता को समाज में कार्यरत अन्य समुदायों के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। राजसत्ता का प्रचलिऔ सिद्धांत केवल कल्पना मात्र हैं। इस संबंध में प्रो. लाॅस्की ने कहा हैं," राजसत्ता का प्रभुता संबंधी सिद्धांत केवल कल्पना मात्र हैं।" 

3. राज्य शक्तिमान नहीं 

राज्य की प्रभुसत्ता के सिद्धांत में राज्य को सर्व-शक्तिमान संस्था माना हैं, किन्तु बहुलवादियों का कहना है कि धार्मिक संगठन तथा अन्य व्यावसायिक संगठन व्यक्ति के जीवन में राज्य से भी अधिक प्रभावशाली हैं। इसलिए केवल राज्य को ही सर्वशक्तिमान संस्था नहीं माना जा सकता वह केवल विभिन्न समुदायों में सामंजस्य स्थापित करने वाली एक संस्था हैं। 

4. राजसत्ता का विभाजन 

बहुलवादियों का कहना है कि राज्य समाज की अन्य सभी संस्थाओं से ऊपर नहीं इसलिए केवल राज्य को ही राजसत्ता का उपभोग करने की स्वतंत्रता नहीं होनी चाहिए। 

5. नैतिकता की दृष्टि से अनुचित 

बहुलवादी विचारक लाॅस्की नैतिकता की दृष्टि से भी इस सिद्धान्त को अनुचित मानते हैं क्योंकि यह बिना सोचे समझे राज्य के प्रत्येक आदेश को मानना व्यक्ति के लिए अनिवार्य मानता हैं। 

6. अन्य समुदायों का महत्व 

बहुलवादियों का कहना हैं कि राज्य की तरह अन्य समुदाय भी व्यक्ति के व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं, इसलिए केवल राज्य को व्यक्तियों की भक्ति का अधिकार नही हैं।

बहुलवाद की विशेषताएं या लक्षण (bahulvad ki visheshta)

बहुलवाद की कुछ मौलिक विशेषताएं या लक्षण हैं, जो निम्नलिखित हैं--

1. राज्य सम्पूर्ण नहीं है 

इस सिद्धांत के अनुसार मनुष्य का जीवन बहुमुखी है। मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनेक समुदायों की स्थापना करता है। इन समुदायों में राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक संगठन होते हैं। अपने जीवन के प्रत्येक पहलू को तभी यह पूर्णरूप से विकसित कर सकता है यदि इन समुदायों की अपने क्षेत्र में स्वतंत्रता हो। समुदायों को अपने-अपने क्षेत्र में प्रभुसत्ता प्राप्त होनी चाहिए। प्रभुसत्ता केवल राज्य के पास न होकर सभी समुदायों में विभाजित होनी चाहिए। इस प्रभुसत्ता पर राज्य का एकाधिकार नहीं होना चाहिए।

2. व्यक्ति का संबंध अन्य समुदायों से भी है 

व्यक्ति राज्य के प्रति ही वफादार नहीं है बल्कि उन सब समुदायों के प्रति वफादार है जिसका वह सदस्य है। अधिकांश व्यक्ति अपने धार्मिक तथा आर्थिक समुदायों के प्रति इतने अधिक वफादार होते हैं कि वे राज्य का भी विरोध करने के लिए तैयार हो जाते हैं। अतः राज्य अकेला व्यक्ति की बफादारी का अधिकारी नहीं है और न ही अकेले इसी के पास प्रभुसत्ता होनी चाहिए। 

3. राज्य का कार्यक्षेत्र सीमित होना चाहिए 

राज्य का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति के राजनीतिक जीवन की उन्नति करना होता है। बहुलवादियों के अनुसार उसे अपने कार्य राजनीतिक क्षेत्र तक ही सीमित रखने चाहिए जिससे अन्य समुदाय व्यक्ति के विकास में पूर्ण योगदान दे सके शिक्षा कैसी होनी चाहिए, उत्पादन के साधनों की व्यवस्था क्या होनी चाहिए इत्यादि बातों से राज्य का कोई मतलब नहीं होना चाहिए। 

4. राज्य के अस्तित्व की स्वीकृति 

बहुलवादी राज्य को समाप्त करने के पक्ष में नहीं है बहुलवादी राज्य को उपयोगी समझते हैं परन्तु उसके अनुसार राज्य के साथ-साथ अन्य समुदायों को भी स्वतंत्रता देना चाहते हैं। अत: बहुलवादी राज्य को एकल प्रभुसत्ता का विरोधी है न कि स्वयं राज्य का। 

5. प्रभुसत्ता का आधार संघात्मक होना चाहिए

बहुलवादियों के मतानुसार समाज का संगठन संघात्मक है। जिस प्रकार संघ राज्य में कई राज्य मिलकर संघ की स्थापना करते हैं परन्तु अपनी प्रभुसत्ता का अंत नहीं करते, उसी प्रकार संघात्मक समाज में विभिन्न समुदायों को अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए स्वतंत्रता होनी चाहिए। समाज में विभिन्न समुदाय सामान्य हितों की रक्षा के लिए संगठित अवश्य हो परन्तु प्रत्येक समुदाय अपनी सत्ता को अवश्य बनाए रखें। 

6. क़ानून का पालन उपयोगिता के कारण 

बहुलवादियों के मतानुसार व्यक्ति राज्य की आज्ञा का पालन इस कारण नहीं करता कि राज्य प्रभुसत्ता संपन्न है और उसकी आज्ञा का उल्लंघन करने पर उसे दण्ड मिलेगा बल्कि यह कानून का पालन उपयोगिता के कारण करता है। इस प्रकार बहुलवादी राज्य को एक उपयोगी संस्था मानते हैं। जिस प्रकार अन्य समुदाय व्यक्ति के जीवन को विकसित करने के लिए प्रयत्न करते हैं उसी प्रकार राज्य भी व्यक्ति के राजनीतिक जीवन का विकास करता है। इस प्रकार कानून का आधार शक्ति न होकर उसकी उपयोगिता है । 

7. विकेंद्रीकरण के पक्ष में 

बहुलवादी प्रभुसत्ता का विकेंद्रीकरण चाहते हैं। उसके मतानुसार केंद्रीयकरण से समुदायों की स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है इसलिए प्रभुसत्ता राज्य तथा अन्य समुदायों में बैटी होनी चाहिए। 

8. राज्य की निरंकुशता का विरोध  

बहुलवादी राज्य की निरंकुशता तथा असीमित शक्तियों का विरोध करते हैं पर से व्यक्ति को अनियंत्रित स्वतंत्रता के पक्ष में नहीं है। बहुलवादी व्यक्ति की अपेक्षा समुदायों के अधिकारों तथा स्वतंत्रता पर जोर देते हैं। 

9. राज्य और समाज में अंतर 

आदर्शवादियों की तरह बहुलवादी राज्य और समाज को एक नहीं मानते हैं। बहुलवाद के अनुसार, " फाँसीवादियों का यह कथन गलत है कि सभी कुछ राज्य के अन्दर है . राज्य के बाहर तथा राज्य के विरुद्ध कुछ नहीं।" बहुलवादियों के अनुसार, राज्य समाज का वह अंग है जो उद्देश्य और कार्यक्षेत्र की दृष्टि में समाज का सहगामी नहीं हो सकता । इस संबंध में मैकाइवर  ने लिखा है कि," राज्य एक ऐसा संगठन है जिसे समाज का समकालीन या सम विस्तार वाला नहीं कहा जा सकता। राज्य का निर्माण तो समाज के अंतर्गत एक निश्चित व्यवस्था के रूप में कुछ विशेष उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु ही किया जाता है।" 

10. राज्य सामाजिक संस्थाओं के अधीन

बहुलवादियों का कहना है कि इतिहास इस बात का गवाही देता है कि राज्य सदा ही सामाजिक संस्थाओं के सामने झुकता आया है। प्रो लॉस्की का कहना है कि राज्य कभी भी सर्वशक्तिमान तथा निरंकुश नहीं रहा है। प्रथम महायुद्ध में ब्रिटिश सरकार वेल्स की खानों में विद्रोही मजदूरों के विरुद्ध शस्त्रास्त्र अधिनियम  को लागू नहीं कर सकी। इस प्रकार अमेरिकन रेलवे कर्मचारी संघ हड़ताल की धमकी देकर सरकार से आठ घण्टे का दिन स्वीकार करवा लिया था। भारत में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है। इससे स्पष्ट होता है कि सरकार को सामाजिक संगठनों की माँगों को स्वीकार करना पड़ता है।

बहुलवादी विचारधारा की आलोचना 

यद्यपि बहुलवाद का प्रादुर्भाव राज्य की संप्रभुता के विरूद्ध, एक आलोचना के स्वरूप में हुआ, तथापि इसका आशय यह कदापि नही है कि बहुलवाद को पूर्णतया स्वीकार कर लिया गया। बल्कि सच तो यह है कि बहुलवादी विचारधारा की भी विभिन्न आधारों पर आलोचना की गई हैं, जो निम्नलिखित हैं-- 

1. विचारधारा की अस्पष्टता

बहुलवादी विचारक राज्य को एक विशेष समुदाय मानते हैं, किन्तु इस पर भी वह राज्य को विशेष अधिकार प्रदान नही करते इसीलिए आलोचकों की दृष्टि से बहुलवादी विचारधारा एक अस्पष्ट विचारधारा हैं। 

2. प्रभुसत्ताहीन राज्य की कल्पना 

बहुलवादी विचाराधार को आधुनिक युग में मान्यता नहीं दी जा सकती, क्योंकि यह एक ऐसे राज्य की कल्पना करती हैं, जिसमें कोई प्रभुसत्ताधारी शासन न हो। 

3. सभी समुदाय समानपदीय नही होते 

बहुलवादी विचारधारा की एक सबसे बड़ी भूल यह है कि उसने समस्त समुदायों को एक स्तर पर लाकर खड़ा कर दिया है। जबकि यह एक निर्विवाद तथ्य है कि राज्य के कार्य अन्य समुदायों की तुलना में श्रेष्ठ तथा महत्वपूर्ण होते हैं। इस दृष्टिकोण से राज्य की स्थिति अन्य समुदायों से भिन्न होती है। 

4. व्यक्ति की स्वतंत्रता प्रतिबंधित 

बहुलवादियों का यह तर्क भी निराधार है कि अन्य समुदायों पर राज्य का नियंत्रण हटा लेने पर व्यक्ति को अपने विकास के लिए स्वतन्त्र वातावरण प्राप्त होगा। वास्तविकता तो यह है कि लोग स्वतंत्रता की दुहाई देकर राज्य के नियंत्रण का विरोध करते है जब उनके हाथ में सत्ता आ जाती है तो वे इसका राज्य से अधिक मनमाना प्रयोग करते हैं। 

5. देशभक्ति की भावना का विरोध 

अपने अन्तर्राष्ट्रीय विचारों के कारण बहुलवादी, किसी हद तक नागरिकों की देशभक्ति की भावना के विरोधी हैं, जिन्हें उचित नही कहा जा सकता। बहुलवादी, व्यक्ति को अन्तर्राष्ट्रीय प्रेम के इन्द्रजाल में फँसाकर उसे देशभक्ति का विरोधी बना देते हैं जो कि एक बहुत बड़ी भूल हैं। 

6. कानून के संबंध में गलत व्याख्या 

कानून के संबंध में बहुलवादियों के विचार गलत हैं। वे कानून को प्राचीन तथा राज्य को सत्ता से उच्चतर स्थान प्राप्त कराते हैं। जबकि इस तथ्य से इंकार नही किया जा सकता कि समाज का कोई भी नियम चाहे कितना ही मान्य क्यों न हो, उसे कानून के रूप में तब तक मान्यता प्राप्त नही होती, जब तक कि उस पर राज्य की स्वीकृति न प्राप्त हो जाए। 

7. संकटों में वृद्धि 

यदि बहुलवाद के अनुसार राज्य की प्रभुसत्ता के सिद्धांत के अनुसार राज्य को अन्य सभी समुदायों के बराबर मान लिया जाये तो सभी समुदाय नियंत्रण विहीन हो जायेंगे, उस दशा में व्यक्तियों को अनेक संकटों का सामना करना पड़ेगा। 

बहुलवाद की उपयोगिता 

यद्यपि आलोचकों ने बहुलवाद की आलोचना की है, किन्तु राजनीति के क्षेत्र में बहुलवाद की निम्नलिखित कारणों से उपयोगिता हैं--

1. समुदायों के अधिकारों की मान्यता होने से विकेंद्रीकरण की भावना पैदा हुई। 

2. इस विचारधारा के कारण सामूहिक जीवन की भावना को अधिक प्रोत्साहन मिला। 

3. राज्य तथा अन्य समुदायों में समानता के सिद्धांत को मानने से अन्य समुदायों का महत्व बढ़ गया हैं।

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