1/11/2022

राजनीतिक व्यवस्था का अर्थ, लक्षण, विशेषताएं

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प्रश्न; राजनीतिक व्यवस्था की अवधारणा का अर्थ स्पष्ट कीजिए। तुलनात्मक शासन के अध्ययन में इसकी उपयोगिता दर्शाइए। 

अथवा" राजनीतिक व्यवस्था से आप क्या समझते हैं? वर्णन कीजिए। 

अथवा" राजनीतिक व्यवस्था से आप क्या समझते हैं? राजनीतिक व्यवस्था के लक्षण बताइए। 

अथवा" राजनीतिक व्यवस्था से क्या तात्पर्य हैं? राजनीतिक व्यवस्था की विशेषताएं लिखिए। 

अथवा" राजनीतिक व्यवस्था से क्या आशय हैं? 

उत्तर--

राजनीतिक व्यवस्था का अर्थ (raajnitik vyavastha kya hai)

'राजनीतिक' और 'व्यवस्था' इन दो शब्दों से मिलकर ही 'राजनीतिक व्यवस्था' की उत्पत्ति हुई हैं। व्यवस्था का अर्थ तो स्पष्ट है परन्तु साहित्य में 'राजनीतिक' की व्याख्या के लिए अनेक परिभाषायें मिलती हैं। राजनीतिक व्यवस्था का प्रमुख लक्षण बल प्रयोग हैं। मैरियन लेवी का विचार है कि शक्ति के वितरण को हम एक प्रकार से राजनीतिक दायित्व मान सकते हैं। इसमें दोनों ही तथ्य सम्मिलित हैं बलपूर्वक मान्यतायें तथा उत्तरदायित्व। उसे राज्य की भी मान्यता प्राप्त होती है और राजनीतिक शक्ति की भी। डेविड एम. वुड राजनीतिक व्यवस्था की परिभाषा के संबंध में कहते है कि राजनीतिक व्यवस्था राजनीतिक रूप से प्रासंगिक समझे जानेव वाले चरों की व्यवस्था हैं, मानों कि वे अन्य चरों से अलग किये जा सकते हों जो कि राजनीति के लिये तत्काल रूप से प्रासंगिक नहीं हैं, उन परस्पर संबंधित चरों की एक व्यवस्था हैं।" 

दूसरी ओर राजनीतिक व्यवस्था की धारणा की उत्पति के विषय में एस.एच.बियर और ए.बी.उलम की धारणा है कि," राजनीतिक व्यवस्था समस्त सामाजिक व्यवहार को देखने की एक व्यापक प्रणाली से उत्पन्न हुई। इस परिप्रेक्ष्य से राजनीतिक व्यवस्था एक संरचना है जो कि किसी समाज के लिये कोई कार्य करती हैं। थोड़े से थोड़े शब्दों में नीति संबंधी उचित निर्णयों को करना ही वह कार्य हैं।" आमण्ड और पावेल के अनुसार यह (राजनीतिक व्यवस्था) एक समाज के अंतर्गत राजनीतिक क्रियाओं के समस्त क्षेत्र की ओर, इस बात की पर्वाह न करके कि इस प्रकार की क्रियायें समाज में कहाँ स्थित हैं, ध्यान आकर्षित करती हैं, जब हम राजनीतिक व्यवस्था की बात करते हैं तो हम उसमें उन समस्त अन्तक्रियाओं को सम्मिलित कर लेते है जो कि वैध भौतिक बल का प्रयोग करने की धमकी को प्रभावित करती हैं। राजनीतिक व्यवस्था न केवल विधान सभाओं, न्यायालयों और प्रशासनिक साधनों जैसी सरकारी संस्थाओं को शामिल करती हैं वरन् समस्त संरचनायें उनके राजनीतिक पहलुओं में शामिल करती हैं।" 

क्योंकि व्यवस्था राजनीतिक हैं, कोई साधारण व्यवस्था नहीं, अतः यह आवश्यक हैं कि राजनीतिक व्यवस्था में वे समस्त प्रमुख लक्षण सम्मिलित हों जो व्यवस्था में होते हैं। आमण्ड और पावेल का मत हैं कि व्यवस्था की परिभाषा निश्चय करने के लिए निम्नलिखित कसौटियों को आधार मानना आवश्यक हैं-- 

1. तत्वों की एक संरचना की विशिष्टता, 

2. वे संबंध दिखलाना जो थोड़े बहुत तत्वों में पहचाने जा सकें, 

3. उच्च संबंधों में अन्य संबंध भी सम्मिलित होते हैं। काल आयाम को सम्मिलित करके इस परिभाषा को गत्यात्मकता देना। 

4. "किसी निश्चित काल में संबंधों की ऐसी जटिलता होनी चाहिए जो बाद के काल में एक अथवा कई संभव जटिलताओं में से एक हो अतः किसी व्यवस्था का गतिशील सिद्धांत वह है जिसकी सहायता से हम एक दी हुई वर्तमान दशा से कुछ भावी दशाओं का निगमन कर सकें।

राजनीतिक व्यवस्था के लक्षण (raajnitik vyavastha ke lakshan)

राजनीतिक व्यवस्था के कुछ अपने अलग लक्षण होते हैं। यदि हम ध्यान से देखें तो प्रत्येक समाज की संरचना सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक व सहभागिता चार संरचनात्मक स्तरों से मिलकर बनती है राजनीतिक संरचना ऐसी ही एक समाज की संरचना है जो अनोखी विशेषताएं लिए हुए हैं। इसे अन्य उप-संरचनाओं या व्यवस्थाओं से अलग करने वाले लक्षण निम्नलिखित हैं--

1. न्यायसंगत शारीरिक उत्पीड़न (Legitimate Physical Coercion) 

 सभी समाजों में राजनीतिक व्यवस्था शारीरिक शक्ति के न्यायसंगत प्रयोग से जुड़ी हुई है ईस्टन इसे 'मूल्यों के सत्तात्मक आवंटन' (Authoritative Allocation of Values) लॉसवेल के और कॉप्लान 'गम्भीर वंचन' (Severe Deprivation)  डाहल शक्ति कानून और सत्ता (Power. Rule and Authority) कहता है। राजनीतिक व्यवस्था की सभी परिभाषाएं राजनीतिक व्यवस्था में न्यायपूर्ण प्रतिबन्धों, दण्ड देने की शक्ति लागू करने की शक्ति तथा बाध्य करने की शक्ति को शामिल करती हैं अपने औचित्यपूर्ण शक्ति के प्रयोग द्वारा ही राजनीतिक व्यवस्था विशिष्टता का गुण प्राप्त करती है। राजनीतिक व्यवस्था में केवल विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका ही शामिल नहीं होती बल्कि इसमें सभी प्रकार की गैर राजनीतिक संरचनाएं - हित समूह, राजनीतिक दल, लोकमत को अभिव्यक्त करने वाले साधन, दंगे-फसाद, प्रदर्शन संचार माध्यम आदि भी सभी शामिल होती है न्यायसंगत शब्द का समावेश होने के कारण राजनीतिक व्यवस्था का उद्देश्य शक्ति व हिंसा का प्रयोग करना ही नहीं होता बल्कि यह सामाजिक कल्याण, राष्ट्रीय सुरक्षा आदि उद्देश्यों को पूरा करने के लिए ऐसा करती हैं । 

2. अंगों की पारस्परिक निर्भरता (Inter-dependence of parts) 

राजनीतिक व्यवस्था के अंगों में सायविक एकता पाई जाती है। जिस प्रकार शरीर का एक भी अंग विकृत हो जाने पर सम्पूर्ण शरीर तन्त्र प्रभावित करता है, उसी प्रकार राजनीतिक व्यवस्था का प्रत्येक अंग एक दूसरे के साथ गुँथा होता है। उदाहरण के लिए सरकार के तीनों अंगों कार्यपालिका, विधायिका व न्यायपालिका का आपस में गहरा सम्बन्ध होता है। यदि इनमें से एक भी अंग अपने उत्तरदायित्यों से विमुख हो जाए तो अन्य अंगों के साथ साथ सम्पूर्ण तन्त्र ही डांवाडोल हो जाता है। इनमें तालमेल के अभाव में सम्पूर्ण व्यवस्था टूट सकती है। अतः अंगों की पारस्परिक निर्भरता राजनीतिक व्यवस्था का विशेष लक्षण है। 

3. सीमा का विचार (Notion of Boundary) 

प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था की अपनी सीमा होती है जिसके आधार पर उसे एकाधिकारवादी, लोकतन्त्रीय, सैनिकवादी, साम्यवादी आदि नामों से पुकारा जाता है। प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था नागरिकों, प्रजाजनों, मतदाताओं आदि की कार्यात्मक भूमिका से संचालित होती है। सभी व्यक्ति राजनीतिक व्यवस्था में सामर्थ्य अनुसार भूमिकाएं अदा करते हैं। ये भूमिका राजनीतिक भी हो सकती हैं और गैर-राजनीतिक भी जिस राजनीतिक व्यवस्था में जनता को अधिकाधिक भूमिकाएं अदा करने का मौका मिलता है, वह व्यवस्था लोकतांत्रिक होती है और जिसमें कम या ना के बराबर तुलनात्मक अवसर मिलता है, वह सर्वसत्ताधिकारी राजनीतिक व्यवस्था कहलाती है। राजनीतिक व्यवस्थाओं का नामकरण लोगों की विभिन्न प्रकार की भूमिकाओं की मात्रा के आधार पर ही होता है। सीमा के आधार पर ही एक राजनीतिक व्यवस्था दूसरी से भिन्न बनती है। संसार की सभी निरंकुश शासन-व्यवस्थाओं में लोगों की राजनीतिक सहभागिता सीमित होती है और शासन की समस्त शक्तियों का शासक वर्ग के हाथ में केन्द्रित हो जाती हैं इसके विपरित लोकतन्त्र में शक्तियों का पथक्करण व लोकमत को महत्व दिया जाता है। इससे भूमिकाओं के क्षेत्र का निर्धारण होता है और भूमिकाएं राजनीतिक व्यवस्था की सीमा निर्धारित करती हैं। चुनावों के समय राजनीतिक व्यवस्था की सीमाएं भी लोगों की भूमिकाओं में वृद्धि के कारण विस्तुत हो जाती हैं तथा चुनावों की समाप्ति पर सरकार के गठन के बाद लोगों की राजनीतिक भूमिकाओं के कम होने के कारण राजनीतिक व्यवस्था की सीमाएं भी सिकुड़ जाती हैं। इस प्रकार लोगों की भूमिकाएं राजनीतिक व्यवस्था की सीमा को निर्धारण करने में प्रत्यक्ष योगदान देती हैं।

राजनीतिक व्यवस्थाओं की विशेषताएं (raajnitik vyavastha ki visheshta)

राजनीतिक व्यवस्था अपने क्षेत्र में भौगोलिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, ऐतिहासिक एवं इसी प्रकार की अन्य पृष्ठभूमियों में अपना रूप ग्रहण करती हैं। राबर्ट ए. हडाल ने इनकी कतिपय विशेषताओं का वर्णन किया हैं। हडाल के शब्द हैं," ये विशेषतायें राजनीतिक व्यवस्था की परिभाषा नही हैं, बल्कि ये तो नियमित विशेषतायें है जो अधिकांश राजनीतिक व्यवस्थाओं से प्राप्त होती हैं।" व्यवस्था विश्लेषण की दृष्टि से हमें राजनीतिक व्यवस्थाओं की इन विशेषताओं को समझना आवश्यक हैं-- 

1. राजनीतिक स्त्रोतों का असफल नियंत्रण 

राजनीतिक व्यवस्था मे राजनीतिक स्त्रोतों का असमान वितरण होता हैं। राजनीतिक स्त्रोतों के अंतर्गत धन, सूचना, भोजन, शक्ति की धमकी, मित्रता, सामाजिक स्तर, विधि निर्माण का अधिकार, मताधिकार आदि बातें सम्मिलित हैं। इन राजनीतिक स्त्रोतों का नियंत्रण विभिन्न समाजों में एक-सा नहीं होता हैं। इस असमानता के चार कारण हो सकते हैं-- 

1. प्रत्‍येक राज्य-समाज में कार्यों का विशेषीकरण होता है जिससे व्यक्ति-व्यक्ति में कुछ भिन्नता आ जाती हैं। विशेषीकरण हो जाने से सभी व्यक्ति समान रूप से राजनीतिक स्त्रोतों का लाभ नहीं उठा सकते हैं। उदाहरण के लिए, एक राजनीतिक व्यवस्था में एक व्यक्ति विदेशमंत्री या विदेश सचिव बन जाता हैं। विदेशमंत्री को विदेश नीति के विषय में जितनी जानकारी और अधिकार प्राप्त होते हैं, उतने सामान्य नागरिक को प्राप्त नहीं होते हैं। 

2. नागरिकों के मध्य मतभेद होते हैं। सभी व्यक्तियों की राजनीतिक स्त्रोतों पर समान पहुंच नहीं होती। 

3. राजनीतिक ज्ञान में सभी व्यक्तियों की रूचि नहीं होती। अतः उनके राजनीतिक ज्ञान में भिन्नता होती हैं। प्रत्येक व्यक्ति नेता भी नही बन सकता है क्योंकि लोगों के लक्ष्यों एवं प्रेरकों में अंतर होता है। सब व्यक्तियों को बुद्धि भी समान रूप से नही मिलती। लोगों की कुशलता एवं स्त्रोतों में अंतर रहता हैं। 

4. सभी व्यक्तियों में इच्छा तो होती है परन्तु पहल करने की क्षमता नहीं होती। एक व्यक्ति एक या दो विषयों का विशेषज्ञ हो सकता हैं, सबका नहीं। विशेषीकरण के कारण प्रेरकों में अंतर होता है और प्रेरकों में अंतर होने से स्त्रोतों मे भी अंतर आ जाता है। उदाहरण के लिए, युद्ध प्रिय लोगों को सेना में अधिक सैनिक शक्ति दी जाती हैं। 

उपर्युक्त चारों कारणों के अध्ययन से यह जाना जा सकता है कि राजनीतिक स्त्रोतों का वितरण प्रत्‍येक समाज में असमान होता है। ऐसा समाज खोजने से कठिनाई से मिलेगा जिसमें वयस्कों को समान मात्रा में राजनीतिक स्त्रोतों का वितरण किया जाता हैं। व्यवस्था विश्लेषण की प्रक्रिया में विभिन्न समाजों में राजनीतिक स्त्रोतों के असमतल नियंत्रण और वितरण को ध्यान रखना आवश्यक हैं। 

2. राजनीतिक प्रभाव की खोज 

प्रत्‍येक राजनीतिक समाज में कुछ व्यक्ति बड़े महत्वाकांक्षी होते है। वे सत्ता के दीवाने होते हैं। उसका कारण यह है कि राजनीतिक सत्ता प्राप्त कर वे अपनी इच्छा और आकांक्षाओं की पूर्ति कर सकते हैं। प्रशासनिक यंत्र पर अधिकार कर वे अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। राजनीतिक सत्ता अपने लक्ष्यों और मूल्यों को प्राप्त करने का एक प्रभावशाली साधन माना जाता हैं। 

3. राजनीतिक प्रभाव का असमतल वितरण 

राजनीतिक व्यवस्था में वयस्क सदस्यों को राजनीतिक शक्ति दी जाती हैं। परन्तु यह शक्ति भी सब वयस्कों में समान रूप से वितरित नहीं होती। कुछ व्यक्ति अधिक राजनीतिक स्त्रोत रखते है और कूछ कम। व्यक्ति की योग्यता और कुशलता में अधिक राजनीतिक प्रभाव प्राप्त करने मे सहायक होती है। अधिक राजनीतिक स्त्रोतों पर नियंत्रण करने वाला-व्यक्ति अधिक प्रभाव रखेगा। इस प्रकार यह राजनीतिक स्त्रोतों का असमान वितरण प्रत्‍येक देश और काल में पाया जाता हैं। आधुनिक काल की जटिल व्यवस्थाओं में तो यह बहुत बढ़ गया हैं। इसके प्रमुख कारण हैं-- राजनीतिक स्त्रोतों का असमतल वितरण, व्यक्तियों की कुशलता में अंतर, एक राजनीतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रयोग किये जाने वाले साधनों में भिन्नता। आमतौर से संभ्रात एवं विशिष्ट वर्ग के व्यक्ति ही राजनीतिक स्त्रोतों का अधिकाधिक नियंत्रण रखते हैं। अधिक राजनीतिक प्रभाव रखने वाले व्यक्ति ही नेता होते हैं। 

4. संघर्षपूर्ण उद्देश्यों का समाधान 

प्रत्‍येक राजनीतिक व्यवस्था में उसके सदस्यों में संघर्षपूर्ण उद्देश्य पाये जाते हैं। सरकार प्रायः इस पर विचार करती हैं कि जो लोग साथ-साथ रहते हैं वे भी प्रायः प्रत्‍येक बात में एक मत नहीं रखते। यदि वे साथ-साथ चलना चाहते तो उनमें एकमतता होना आवश्यक हैं। इस प्रकार एकमतता एवं अनेकमतता दोनों ही बातें राजनीतिक व्यवस्था में पायी जाती हैं। दोनों बातों के समर्थक समाज में मिल जाते हैं। कुछ व्यक्ति सहयोग और सहमति पर जोर देते हैं तो कुछ व्यक्ति विरोध और असहमति को आवश्यक मानते हैं। परन्तु दोनों पक्षों के समर्थक अतिवादी हैं। 

व्यक्तियों के संघर्षपूर्ण उद्देश्य और कार्यों में राज्य हर समय हस्तक्षेप नहीं करता। वार्तालाप, शक्ति प्रयोग आदि के भय आदि उपायों से गंभीर व्यक्तिगत असहमतियों को सुलझाने के लिए व्यक्तिगत प्रयास किये जाते हैं। पंच निर्णय भी संघर्षपूर्ण उद्देश्यों के समाधान में सहायक होता हैं। परन्तु दमन के समय राज्य को हस्तक्षेप करना पड़ता हैं। उदाहरण के लिए मिल-मालिक और मजदूरों के संघर्ष में सरकार तब तक हस्तक्षेप करना पसंद नहीं करती जब तक राष्ट्रीय अर्थ व्यवस्था के कमजोर हो जाने का खतरा पैदा न हो जाये या शांति में सब उपाय असफल हो जायें।

5. औचित्यपूर्णता की प्राप्ति  

प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था अपनी नीतियों, निर्णयों, नियमों का आधार औचित्यपूर्ण बनाए रखना चाहती है। इसलिए संघर्षों के समाधान पर विरोधी हितों में सामंजस्य कायम करने के लिए हिंसा व दमन की नीति का कम से कम प्रयोग करना चाहती है। राजनीतिक व्यवस्था में उसके संचालकों का सदैव यही ध्येय रहता है कि राजनीतिक व्यवस्था में सम्पादित किया जाने वाला प्रत्येक कार्य नैतिक व न्यायसंगत हो और लोग उस कार्य को औचित्यपूर्ण मानकर स्वीकार करें। 

यदि राजनीतिक व्यवस्था की औचित्यता की प्राप्ति नहीं होगी तो वह कभी वैधता का गुण प्राप्त नहीं कर सकती प्रजातन्त्र में तो औचित्यपूर्ण कार्यों का राजनीतिक व्यवस्था के लिए बहुत महत्त्व होता है शासकों के प्रति जनता का विश्वास ही ऐसी राजनीतिक व्यवस्था को औचित्यता प्रदान करता है। अन्य राजनीतिक व्यवस्थाओं में राजनीतिक सत्ताधारकों द्वारा अपनी राजनीतिक व्यवस्था का औचित्यपूर्ण बनाए रखने के लिए प्रजातन्त्रीय सिद्धान्तों का पालन किया जाता है जनता की सहभागिता और विश्वास ही प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था को औचित्यपूर्ण और वैध बनाता है। 

6. विचारधारा का विकास  

प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था के सत्ताधारक अपने कार्यों के प्रति जनता में विश्वास बढ़ाने के लिए अपने विचारधारा रूपी मन्त्र का प्रसार करते हैं। यह विचारधारा ही लोगों के हितों में पाए जाने वाले संघर्ष को एक मंच पर लाकर छोड़ देती है । विचारधारा ही प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था को अलग पहचान देती है। इसी के आधार पर दलों का निर्माण होता है और जनता का समर्थन भी प्राप्त किया जाता है। यह नेतत्व को औचित्य प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। विचारधारा के आधार पर ही राजनीतिक व्यवस्थाएं पूंजीवादी, साम्यवादी, लोकतांत्रिक, निरंकुशवादी आदि रूप प्राप्त करती है। अतः प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में विचारधारा का महत्वपूर्ण स्थान होता है। 

7. अन्य राजनीतिक व्यवस्थाओं का प्रभाव  

आज का युग विज्ञान व तकनीकी विकास का युग है। आज समस्त विश्व एक 'Global Village' (वैश्विक गांव) बन गया है। एक स्थान की घटना दूसरे स्थान पर भी अपना प्रभाव डालती है। कोई भी देश एक दूसरे से अपरिचित नहीं रह सकता। इसलिए आज राजनीतिक व्यवस्थाएं अपने समाज के पर्यावरण के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय या दूसरे देशों की राजनीतिक व्यवस्थाओं से भी प्रभावित होने लगी हैं कोई भी देश अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों व समझौतों की अनदेखी नहीं कर सकता। राजनीतिक व्यवस्थाओं की अन्तनिर्भरता ने आज राजनीतिक व्यवस्थाओं की परम्परागत सीमाओं को तोड़ दिया है। 

इस प्रकार कहा जा सकता है कि कोई भी राजनीतिक व्यवस्था दूसरी राजनीतिक व्यवस्था के प्रभाव से मुक्त नहीं रह सकती। उस पर एक दूसरी का कम या अधिक प्रभाव अवश्य पड़ता है। इसे राजनीतिक व्यवस्थाओं की अन्तनिर्भरता का नाम दिया जाता है। 

8. राजनीतिक व्यवस्थाओं की गत्यात्मकता परिवर्तनशीलता 

प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था का मुख्य गुण है जो राजनीतिक व्यवस्था अपने को समय के अनुसार परिवर्तित करने का गुण नहीं रखती, वह टूटने के कगार पर पहुंच जाती है स्थिरता का अर्थ नष्ट होना है। इसी कारण सभी राजनीतिक व्यवस्थाएं अपने को गतिशील बनाए रखने के लिए नई नई भूमिकाओं को स्वीकार करती हैं और व्यक्तियों की इच्छाओं व आवश्यकताओं के अनुकूल स्वयं को ढालने का प्रयास करती रहती हैं राजनीतिक व्यवस्था का अस्तित्व परिवर्तनों के प्रति उसका सचेत होना और उन्हें स्वीकार करने पर ही निर्भर करता है। इस प्रकार प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में उपरोक्त सभी विशेषताएं सामान्य रूप से पाई जाती हैं। इनमें पाए जाने वाले अन्तर मात्रात्मक होते हैं प्रकारात्मक नहीं जब इन विशेषताओं में प्रकारात्मक अन्तर आ जाते हैं तो ये सामान्य विशेषताएं नहीं हो सकतीं। उदाहरण के लिए वैधता प्राप्त करना प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था के लिए अनिवार्य होता है। साम्यवादी व्यवस्थाएं भी वैधता प्राप्त करने के उतने ही प्रयास करती हैं जितनी प्रजातन्त्रीय व्यवस्थाएं।

राजनीतिक व्यवस्थाओं में कार्यात्मक पहलू 

किसी राजनीति व्यवस्था के विश्लेषण के लिए उसके कार्यों को भी ध्यान में रखना पड़ता हैं। यद्यपि कार्यात्मकवाद (Functionalism) राजनीतिक सिद्धांत में एक पुराना विषय हैं, तथापि आधुनिक रूप मे इस पर जो बल दिया जाता है वह मानवशास्त्रीय और समाजशास्त्रीय सिद्धांत से उद्भूत है। व्यवस्थाओं की संरचनाओं की कार्यशीलताओं और राजनीतिक संस्कृति की नियमनकारी भूमिका की तुलना करके हम उन व्यवस्थाओं का विश्लेषण कर सकते हैं जो एक-दूसरे से बहुत भिन्न होती हैं। 

एल्मण्ड और पावेल के अनुसार किसी भी व्यवस्था के क्रियाकलापों को विभिन्न स्तरों के आधार पर देखा जा सकता है। इनमे से एक आधार व्यवस्था की क्षमताएँ (System capabities) हैं, अर्थात् यह देखना आवश्यक है कि व्यवस्था के उस व्यवहार पर ध्यान केन्द्रित करते है जो वह अन्य सामाजिक व्यवस्थाओं और वातावरण के साथ अपने संबंधों में एक इकाई के रूप में प्रदर्शित करती है। जब हम एक राजनीतिक व्यवस्था की क्षमताओं की बात करते है तो हम उस व्यवस्थित तरीके (An orderly way) की ओर देख रहे होते हैं जिसके द्वारा व्यवस्था के उन सब क्रिया-कलापों का वर्णन किया जा सके जो वह अपने वातावरण में सम्पादित करती हैं। एक राजनीतिक व्यवस्था की क्षमताओं की अनेक श्रेणियाँ होती है जिन्हें एल्मण्ड तथा पावेल ने 'रेगूलेटिव' (Regulative) एक्स्ट्रेक्विट (Extractive) एवं रेसपोन्सिव (Responsive) कहा हैं। 

सर्वाधिकारवादी व्यवस्था अपने स्वभाव में नियामक (Regulatory) तथा निस्सारक (Extractive) होती है। यह व्यवस्था समाज की मांग को दबा देती है और अंतर्राष्ट्रीय वातावरण से उठने वाली माँगों की पूर्ति के प्रति सहानुभूति नहीं रखती है। साथ में उनकी प्रवृत्ति समाज के व्यवहार को नियमन और दमन करने की होती हैं। साम्यवादी सर्वाधिकवादी शक्तिशाली "वितरणात्मक" क्षमता (Distributive Capability) के कारण भी फासीवादी सर्वाधिकारवाद से भिन्न होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि राजनीतिक व्यवस्था स्वयं सक्रिय रूप संसाधनों को जनसंख्या के कुछ समूहों की ओर हस्तांतरण करती हैं। 

सर्वाधिकारवाद के विरूद्ध लोकतंत्रवादी व्यवस्था में उत्तरदायी क्षमता (Responsive Capability) अधिक होती हैं। इन व्यवस्थाओं में नियमन, निस्सारण और वितरण के आउटपुट (Output of regulation, extraction and distribution) समाज में समूहों की माँगों के इनपुट (Input of demands from groups in society) से अधिक प्रभावित होते हैं। नियामक, निस्सारक, वितरणात्मक और उत्तरदायी क्षमता की ये अवधारणाएँ हमें बतलाती हैं कि एक व्यवस्था अपने वातावरण में किस प्रकार क्रियाशील हैं, यह इस वातावरण को किस प्रकार ढाल रही है और वातावरण से स्वयं किस प्रकार ढल रही हैं। 

क्रियाशीलता का दूसरा स्तर किसी भी व्यवस्था में आन्तरिक (internal) हैं। यहाँ हमारा आशय," कनवर्शन प्रोसेसेज (Conversion process) से है। एल्मण्ड और पावेल के मतानुसार," परिवर्तनकारी या रूपान्तरकारी प्रक्रियाओं अथवा कार्यों द्वारा व्यवस्थाएं इनपुट्स को आउटपुट्स में रूपान्तरित करती हैं राजनीतिक व्यवस्था में इस बात मे वे उपाय सम्मिलित है जिनके द्वारा माँगों और समर्थकों को अधिकाधिक निर्णयों में रूपान्तरित और लागू किया जाता हैं (Ways in which demand and supports are transformed into authoritativr decisions and are implimented) स्पष्ट है कि क्षमताएँ और परिवर्तनकारी या रूपान्तरकारी प्रक्रियाएँ प्ररस्पर संबंधित होती हैं। 

किसी एक राजनीतिक व्यवस्था की परिवर्तनकारी प्रक्रियाओं का विश्लेषण और अन्य राजनीतिक व्यवस्थाओं से उनकी तुलना 6 सूत्री कार्यात्मक योजना के अनुसार संभव हैं। यह जरूरी है कि हम उन उपायों अथवा तरिकों को देखें जिनके द्वार-- 

1. माँगे उत्पन्न की जाती हैं, 

2. माँगें कार्य के वैकल्पिक माँगों के रूप में संयुक्त की जाती हैं, 

3. अधिकाधिक अथवा सत्तापूर्ण नियमों का कानूनों का निर्माण किया जाता हैं, 

4. इन नियमों अथवा कानूनों का प्रयोग होता हैं और उन्हें लागू किया जाता हैं, 

5. नियमों और कानूनों के इन प्रयोगों का व्यक्तिगत मामलों में निर्णय किया जाता हैं, 

6. ये विभिन्न गतिविधियाँ राजनीतिक व्यवस्था के भीतर और राजनीतिक व्यवस्था तथा उसके वातावरण के बीच संचालित होती हैं। 

अंत में तीसरे स्तर पर एल्मण्ड तथा पावेल ने व्यवस्था-रक्षा संबंधी और अनुकूलनकारी कार्यों की चर्चा की हैं। एक राजनीतिक व्यवस्था में विभिन्न प्रकार की भूमिकायें अदा करने वाले लोगों (कूटनीतिज्ञ, सैनिक अधिकारी, टैक्स अधिकारी आदि) की भर्ती इन भूमिकाओं को निभाने के लिये ही होनी चाहिए और उन्हें सीखना चाहिए कि वे अपनी भूमिकाओं को कुशलतापूर्वक किस प्रकार निभा सकते हैं। ये कार्य (Socialization and recruitment of peoples) व्यवस्था की आन्तरिक कुशलता को प्रभावित करते हैं और इस प्रकार इसके कुशल संचालन में सहायक होते हैं।

राजनीतिक व्यवस्था संबंधी आमण्ड के विचार 

राजनीतिक व्यवस्था समाज में व्यवस्था बनाए रखने एवं योगों के रूपान्तरण की एक वैद्य व्यवस्था है । यह एक ऐसी बाध्यकारी शक्ति है, जो राजनीतिक व्यवस्था की समस्त गतिविधियों को एक सूत्र में पिरोये रखते हुए व्यवस्था के रूप में उसे सुसंगठित रूप, विशेष महत्व एवं महत्वपूर्ण लक्षण प्रदान करती हैं। 

राबर्ट डहल के अनुसार," राजनीतिक व्यवस्था मानव संबंधों का वह स्थायी स्वरूप है, जिसके अन्तर्गत 'शक्ति', 'नियम' और 'सत्ता' महत्वपूर्ण मात्रा में निहित हों।"

पुन : ईस्टन का कहना है कि राजनीतिक व्यवस्था एक खुली एवं सामंजस्यकारी व्यवस्था है, जो एक निश्चित वातावरण में रहती है। यह अपने आप में एक परिपूर्ण सत्ता है, जो वातावरण से प्रभावित तो होती है, किन्तु उसकी दास नहीं होती, अपितु यह पर्यावरण को निर्णायक रूप में प्रभावित करने की क्षमता भी रखती है, ईस्टन ने दो तरह की पर्यावरण की चर्चा की है-- 

1. अंत: सामाजिक पर्यावरण, जिसके अन्तर्गत पारिस्थितिकी जीवशास्त्रीय, व्यक्तिगत एवं सामाजिक व्यवस्था इत्यादि आते हैं तथा 

2. अतिरिक्त सामाजिक पर्यावरण, जिसमें अन्तर राष्ट्रीय परिघटनाएँ, सामाजिक व्यवस्था का पर्यावरण शामिल होता है पर्यावरण से ही माँगें उत्पन्न होती हैं। 

संक्षेप में, राजनीतिक व्यवस्था सामाजिक व्यवस्था कि एक ऐसी उपव्यवस्था होती है, जिसके विभिन्न भागों में ऐसी संबंध-सूत्रता होती है कि व्यवस्था के किसी एक भाग में होने वाला कोई परिवर्तन, अन्य अन्तः क्रियाशील अंगों तथा सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था में भी अनुकूल परिवर्तन ला देता है। 

राजनीतिक व्यवस्था के तत्व

आमण्ड के अनुसार राजनीतिक व्यवस्था के तीन मुख्य तत्व हैं--

1. सर्वव्यापकता या विशुद्धता 

इसका निहितार्थ है कि राजनीतिक व्यवस्था में भौतिक बल के प्रयोग अथवा उसके भय को प्रभावित करनेवाली सभी परस्पर अन्तः क्रियाएँ आगत व निर्गत सम्मिलित हैं। 

दूसरे शब्दों में, हम व्यवस्था के अन्तर्गत न केवल उन अंगों को शामिल करते हैं, जो विधि पर आधारित हैं, जैसे कि विधायिका, कार्यपालिका आदि बल्कि, समस्त संरचनाओं को उनके राजनीतिक रूप में शामिल करते हैं जैसे धर्म परिवार, जाति आदि। 

2. अन्योन्याश्रिता 

इसका निहितार्थ है कि व्यवस्था के विभिन्न अंगों में एक प्रकार की संबंध सूत्रता होती है व्यवस्था के विभिन्न उप-समुच्चय एक-दूसरे से इतनी निकटता के साथ जुड़े हुए हैं कि, एक उप व्यवस्था समुच्चय में परिवर्तन के कारण दूसरे सभी उप व्यवस्था समुच्चयों में परिवर्तन होता है।

दूसरे शब्दों में व्यवस्था के भागों अथवा उप-व्यवस्था समुच्चयों की सार्थकता सम्पूर्ण व्यवस्था के क्रियान्वयन में ही है। 

उदाहरण के लिए, संचार व्यवस्था की तकनीक में कोई परिवर्तन राजनीतिक दलों, संवर्गों तथा शासन के विभागों की कार्य शैली में परिवर्तन पर प्रभाव डालता है। 

3. सीमाएँ 

इसका निहितार्थ है कि प्रत्येक व्यवस्था किसी एक बिन्दु से प्रारम्भ होती है तथा किसी एक निश्चित स्थान पर उसका अन्त होता है।

दूसरे शब्दों में, ऐसा बिन्दु जहां अन्य व्यवस्थाओं की परिधि समाप्त होती है और राजनीतिक व्यवस्था की परिधि प्रारम्भ होती है, उसे हम "राजनीतिक व्यवस्था की सीमाएँ" कहते हैं। 

आमण्ड द्वारा गिनायी गयी इन तीन विशेषताओं के अतिरिक्त, उसकी एक और विशेषता है, जिसके संबंध में उसने अपने सम्पूर्ण विश्लेषण में यह चर्चा की है कि व्यवस्थाओं की प्रवृत्ति सन्तुलन प्राप्त करने की ओर होती है। सन्तुलन का अर्थ साधारणतः यह होता है कि कोई भी इकाई दूसरी किसी इकाई के संबंध अपनी स्थिति बदलेगी नहीं, इसका स्वभावतः ही यह अर्थ होगा कि विभिन्न इकाइयों ने एक दूसरे के साथ अपना सामंजस्य स्थापित कर लिया है और वे स्थिरता अथवा समावस्थान की ऐसी स्थिति को प्राप्त कर चुके हैं, जिसमें वे सामंजस्य स्थायित्व और सन्तुलन का उपभोग कर रहे हैं।

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