9/10/2021

मानव विकास का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं

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मानव विकास का अर्थ (manav vikas ka arth)

manav vikas arth paribhasha visheshta varnan;विकास एक निरन्तर चलने वाली वह प्रक्रिया है जो गर्भधारणा से लेकर मृत्यु तक चलती रहती है। मानव के जीवनकाल मे आए विभिन्न प्रकार के परिवर्तनों को सामान्य भाषा मे विकास के नाम से जाना जाता है। विकास की प्रक्रिया मे शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, भावनात्मक आदि पहलू सम्मिलित हैं। मनुष्य के जीवन मे प्रगति की राह मे होने वाले क्रमिक परिवर्तनों को विकास की संज्ञा दी गई है। 

कुछ विद्वानों का मत है कि विकास परिपक्वता के पश्चात रूक जाता है लेकिन यह मत सत्य नही है क्योंकि विकास का क्रम आजीवन चलता रहता है। परिपक्वता की अवस्था के बाद उसकी गति धीमी जरूरी हो जाती है, लेकिन रूकती नही। 

विकास की परिभाषा (manav vikas ki paribhasha)

लालबार्बा के अनुसार," विकास का अर्थ परिपक्वता से संबंधित परिवर्तनों से हैं जो मानव के जीवन में समय के साथ घटित होते रहते हैं।" 

सोरेन्सन के अनुसार," विकास का अर्थ परिपक्वता और कार्यपरक सुधार की व्यवस्था से है जिसका संबंध गुणात्मक एवं परिमाणात्मक परिवर्तनों से हैं।"

इरा. जी. गोर्डन के अनुसार," विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति के जन्म से लेकर उस समय तक चलती रहती है जब तक कि वह पूर्ण विकास को प्राप्त नही कर लेता हैं।" 

स्किनर के अनुसार," विकास जीव और उसके वातावरण की अंत:क्रिया का प्रतिफल हैं।" 

हरलाॅक ने मानव विकास को और अधिक स्पष्ट रूप से परिभाषित किया है। उनके अनुसार," विकास अभिवृद्धि तक सीमित नही है, अपितु इसमे परिवर्तनों का वह प्रगतिशील क्रम निहित है, जो परिपक्वता के लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है। विकास के परिणामस्वरूप व्यक्ति मे नवीन विशेषताएं और नवीन योग्यताएँ प्रकट होती है।"

मानव विकास की विशेषताएं (manav vikas ki visheshta)

मानव विकास की निम्नलिखित विशेषताएं हैं-- 

1. विकास मे शारीरिक परिवर्तनों के साथ-साथ मानसिक परिवर्तन भी होते है। इसमे मात्रात्मक की अपेक्षा गुणात्मक परिवर्तनों पर अधिक बल दिया जाता है। 

2. विकास एक प्रगतिशील प्रक्रिया है। 

3. विकास एक परिपक्वता उन्मुख प्रक्रिया है। 

4. अभिवृद्धि की तुलना मे विकास एक व्यापक सम्प्रत्यय है, इसमे व्यक्ति के जीवनकाल में आये सभी परिवर्तनों को भी सम्मिलित किया जाता है। 

5. विकास एक सतत् एवं क्रमिक प्रक्रिया है, इसमे प्रत्येक अवस्था स्वयं की पूर्व अवस्था से किसी न किसी माध्यम से जुड़ी रहती है। 

6. विकास के फलस्वरूप व्यक्ति मे नवीन विशेषताएं एवं योग्यताएं प्रकट होती हैं। 

7. विभिन्न अवस्थाओं मे विकास की दर भिन्न होती है। बालक के जन्म के समय यह दर अपने उच्चतम स्तर पर होती है तथा प्रौढ़ावस्था में आकर मंद हो जाती हैं। 

8. विकास को वातावरण एवं वंशानुक्रम दोनों प्रभावित करते हैं।

वर्तमान समय में ज्ञान-विज्ञान के विकसित होने की वजह से मानव विकास को लिपिबद्ध कर लिया गया हैं। मानव विकास के इतिहास मे ज्ञान-विज्ञान की अनेक नई शाखाओं का विकास हुआ है। मनोविज्ञान भी व्यक्ति के गर्भ मे आने से लेकर मृत्यु के विकास तक के अनेक नवीन पहलुओं को प्रस्तुत करता है जिससे नवीन उपलब्धियाँ होती हैं। एल. ई. टेलर ने कहा हैं," मनुष्य में, जो कुछ वह अभी है, उससे बदल कर कुछ भिन्न हो जाने की जीवन के प्रत्येक क्षञ प्रक्रिया चलती रहती हैं। उसकी समस्त शैली बदल रही है और एक ही समय मे शैली एवं परिवर्तन के तथ्य, दोनो को ध्यान मे रखना जरूरी हैं। किसी विशेष अवस्था मे शैली क्या होगी, यह पहली शैली तथा उस व्यक्ति पर, उसके वर्तमान वातावरण द्वारा डाले गये प्रभावों पर निर्भर है। साथ ही यह उसकी अपनी अनुक्रियाओं पर भी निर्भर है, उन बातों के प्रति भी जो पहले हो चुकी हैं तथा उन प्रभावों के प्रति भी जो अब उस पड़ रहे हैं। कोई भी व्यक्ति किसी भी हद तक क्रमिक अवस्थाओं में अपनी जीवन शैली का निर्माण अपनी पसंदों तथा निर्णयों द्वारा करता है। एक बार चुनाव हो जाने पर तथा उस चुनाव का प्रभाव विकसित हो रहे ढाँचे पर पड़ चुकने के बाद वह कभी भी मिटाया नही जा सकता है। विकास-मार्ग पथ हैं।" 

गर्भाधान से लेकर जन्म तक व्यक्ति मे अनेक प्रकार के परिवर्तन होते हैं जिन्हें भ्रणावस्था का शारीरिक विकास माना जाता है। जन्म के बाद वह कुछ विशिष्ट परिवर्तनों की ओर संकेत करता हैं, जैसे-- गति, भाषा, संवेग और सामाजिकता के लक्षण उसमे प्रकट होने लगते हैं। विकास का यह क्रम वातावरण से प्रभावित होता है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह जरूरी है कि वह सफलता प्राप्त करने के लिए बालक के विकास की विभिन्न अवस्थाओं का ज्ञान प्राप्त करे। इन अवस्थाओं के कारण बालक मे होने वाले परिवर्तनों के अनुसार वह अपनी कार्य-प्रणाली को विकसित कर सकता हैं। 

व्यक्ति का जन्म, विकास तथा मृत्यु सदैव ही मानव के अध्ययन के लिये जिज्ञासा बने रहे हैं। विकास का अध्ययन मानव व्यवहार की पूर्णता को जानने के लिए होने लगा है। यों इसका महत्व और बढ़ गया। आज व्यक्ति के विकास की विभिन्न अवस्थाओं का ज्ञान प्राप्त करना अनेक नवीन पहलुओं का अध्ययन करने के लिए जरूरी हो गया हैं। 

व्यक्ति के विकास से अभिप्राय उसके गर्भ मे आने से लेकर प्रौढ़ता प्राप्तो होने तक की स्थिति से है। पितृ-सूत्र तथा मातृ-सूत्र के संयोग से जीव स्थित होता है। जब तक भ्रूण गर्भ से बाहर नही आता, यह गर्भ-स्थिति-काल कहलाती है। 9 कैलेण्डर मास एवं 10 या 12 दिन अथवा 10 चन्द्र-मास या 280 दिन तक भ्रूण गर्भ मे रहता है और वहाँ उसका विकास होता रहता है। इस अवधि मे उसके शरीर के अंगों का विकास होता है। जब भ्रूण, पूर्ण विकसित हो जाता है तब वह गर्भ मे नही रह पाता और उसे बाहर आना पड़ता है। गर्भ से बाहर आने पर उसके विकास का नया दौर आरंभ होता है। इसे गर्भोतर स्थिति कहते है। मुनरो ने ऐसे विकास की परिभाषा देते हुए कहा है," परिवर्तन श्रंखला की वह अवस्था, जिसमे बच्च भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक गुजरता है, विकास कहलाता है।" 

विकास का अर्थ बड़े होने या कद एवं भार के बढ़ने से नही हैं। विकास मे परिपक्वता की ओर बढ़ने का निश्चित क्रम होता है। यह एक प्रगतिशील श्रंखला होती है। प्रगति का अर्थ भी दिशाबोध युक्त होता है, यह दिशाबोध आगे भी होता है और पीछे भी। निश्चित क्रम से अभिप्राय है कि विकास मे व्यवस्था रहती है। प्रत्येक प्रकार का परिवर्तन इस बात पर आधारित होता है कि वह किस प्रकार क्रम का निर्धारण करता है। गैसल के अनुसार," विकास सामान्य प्रयत्न से अधिक महत्व की चीज है। विकास का अवलोकन किया जा सकता है एवं किसी सीमा तक इसका मूल्यांकन एवं मापन भी किया जा सकता है। इसका मापन तथा मूल्यांकन तीन रूपों मे हो सकता है-- 

1. शरीर निर्माण, 

2. शरीर शास्त्रीय, 

3. व्यावहारिक व्यवहार चिंह 

विकास के स्तर एवं शक्तियों की विस्तृत रचना करते हैं। 

यह जानकारी आपके के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी

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