8/11/2021

लेखन कौशल का अर्थ, परिभाषा, महत्व

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लेखन कौशल का अर्थ एवं परिभाषा 

लेखन-कौशल का अर्थ है भाषा-विशेष में स्वीकृत लिपि-प्रतीकों के माध्यम से विचारों तथा भावों को अंकित करने की कुशलता। अधिकांशतः सभी भाषों की अपनी लिपि-व्यवस्था होती है। इन लिपि-प्रतीको को वे ही समझ सकते है, जिन्हें उस भाषा लिपि-व्यवस्था का ज्ञान हो। इससे आशय यह है कि लेखक द्वारा लिपिबद्ध विचारों तथा भावों को वे ही पढ़ और समझ सकते है जिन्हें उस भाषा तथा उसकी लिपि-व्यवस्था की अच्छा ज्ञान हो। 

स्पष्ट है कि लेखन लिपि-प्रतीको के माध्यम से विचारों तथा भावों की अभिव्यक्ति का साधन है। केवल वर्णिमों की रचना अथवा शब्दों के अनुलेखन को लेखन नही कहा जा सकता। लेखन-व्यवस्था के विभिन्न घटकों से परिचित होना तथा लिपि-प्रतीकों के माध्यम से विचारों की अभिव्यक्ति करना लेखन के आवश्यक अंग है। यही कारण है कि चित्रकार, पेन्टर तथा टंकित करने वालों को लेखन का ज्ञाता नही माना जा सकता। लेखन-कुशलता के लिए भाषा विशेष तथा उसकी लिपि-व्यवस्था की पर्याप्त जानकारी जरूरी है।

राॅबर्ट लैडो के अनुसार," अन्य भाषा में लेखन-कौशल सीखने से आशय लेखन-व्यवस्था के परम्परागत प्रतीकों को लिपि-बद्ध करना है जिन्हें लिखते समय लेखक ने मौन अथवा उच्चरित रूप से प्रयुक्त किया हो अथवा दोहराया हों।" 

इस प्रकार स्पष्ट है कि अन्य भाषा में लेखन-कौशल सिखाने का अर्थ छात्र को उस भाषा की लेखन-व्यवस्था से परिचित कराना है। इसमें भाषा की लिपि-व्यवस्था तथा उसकी विशिष्टताओं की जानकारी के साथ-साथ उस भाषा का पर्याप्त ज्ञान जरूरी है तभी लिपि-प्रतीकों के माध्यम से विचारों की अभिव्यक्ति संभव है। प्रत्येक भाषा की अपनी परम्परागत लेखन-व्यवस्था होती है, इसमें वैयक्तिक अभिरूचि के अनुसार परिवर्तन नही किया जा सकता। 

अतः भाषा की अन्य विशिष्टताओं के साथ लिपि-प्रतीकों की रचना की योग्यता लेखन-कौशल की प्रमुख विशेषता है। 

लेखन को भाषा का गौण कौशल एवं विचारों की आंशिक अभिव्यक्ति माना जाता है, भाषा का उच्चरित रूप ही वस्तुतः पूर्ण माना जाता है। प्रत्येक भाषा की लेखन-व्यवस्था अलग होती है, यही कारण है कि दो भाषाओं में समान लिपि-प्रतीकों का प्रयोग होने पर भी उनका मूल्य दोनों भाषाओं में अलग होता है। मातृभाषा तथा अन्य भाषा में लेखन सीखने के लिए भाषा में प्रयुक्त लिपि-प्रतीकों के आन्तरिक मूल्यों से परिचित होना जरूरी है। इन मूल्यों से परिचित होने के साथ-साथ लेखन की कुशलता प्राप्त करना भी आवश्यक है। लेखन की कुशलता अभ्यास-जनित है। अभ्यास को आदत के रूप में परिणत करने पर ही लिपि-व्यवस्था पर अधिकार प्राप्त किया जा सकता है। लेखन-व्यवस्था का सतत अभ्यास करने तथा सजग रूप में उसका प्रयोग करने पर वह व्यवहार का सहज अंग बन जाती है, आदत के रूप में परिणत हो जाती है। इसके आधार पर ही लेखन-कौशल का विकास संभव है। 

अतः छात्र में इस प्रकार की अभ्यास-जनित कुशलता उत्पन्न करना मातृभाषा तथा अन्य भाषा-शिक्षण का विशिष्ट उद्देश्य है।

लेखन कौशल का महत्व 

भाषा-शिक्षण मे, विशेषकर अन्य भाषा-शिक्षण में लेखन-कौशल का विशेष महत्व है। लेखन-कौशल के महत्व का अनुमान निम्नलिखित तथ्यों के आधार पर लगाया जा सकता है-- 

1. भाषा के लिपिबद्ध प्रतीकों का मानव-सभ्यता के विकास में विशेष योगदान रहा है। इसके माध्यम से मानव-जाति की मान्यताएँ लिखित सामग्री के रूप में सुरक्षित रहती है और क्रमशः एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को संक्रमित होती है। मानव अपने पूर्वजों के जीवन, उनके आदर्शों तथा जीवन-मूल्यों से लिपिबद्ध सामग्री के माध्यम से ही भली-भाँति परिचित होता है। उसके विकास की दिशाएँ इसके द्वारा ही प्रशस्त होती है।

2. अन्य भाषा में लेखन-कौशल के विकास द्वारा अन्य भाषा-भाषी जन समुदाय के साथ विचारों का आदान-प्रदान संभव होता है। इसके माध्यम से वह व्यापक क्षेत्र में अपने विचारों तथा भावों को सम्प्रेषत करने में समर्थ होता है। लेखन के अभाव में विचारों की अभिव्यक्ति संभव नही है। 

3. लेखन-कौशल के माध्यम से छात्र का ज्ञान क्षेत्र विस्तृत होता है। वह विविध प्रकार की सामग्री एवं विविध विषयों के संबंध में न केवल लेखन के आधार पर जानकारी प्राप्त करता है बल्कि अपने भावों तथा विचारों को भी लिपिबद्ध करने की योग्यता अर्जित करता है। ज्ञानात्मक तथा भावात्मक सामग्री का गहन अध्ययन तथा तत्संबंधी विचारों की स्थायी अभिव्यक्ति की कुशलता लेखन के माध्यम से ही संभव है।

4. मातृभाषा तथा अन्य भाषा में लेखन-कौशल का विकास भाव-प्रकाशन के स्थायी एवं व्यापक रूप पर अधिकार प्राप्त करने का साधन है। लेखन भाव-प्रकाशन का व्यापक एवं शक्तिशाली माध्यम तथा भाषा सीखने का चरम सोपान है। इस कुशलता के विकास द्वारा अन्य भाषा के छात्र को अपने भावों तथा विचारों की अभिव्यक्ति का एक सबल साधन उपलब्ध होता है। वह जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तथा मनोरंजन के उद्देश्य से लेखन-कौशल का उपयोग कर सकता है। लेखन पर अधिकार प्राप्त करने से छात्र में न केवल आत्मविश्वास का भाव उत्पन्न होता है बल्कि रचनात्मक कुशलता का भाव भी जागृत होता है। भाषाई उपलब्धि की यह चेतना आगे चलकर ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न दिशाओं मे प्रेरणा का स्त्रोत बनती है। 

5. लेखन-कौशल साहित्यिक सृजन का मूल आधार है। लिपि-प्रतीको के माध्यम से विचारों तथा भावों की शाश्वत अभिव्यक्ति साहित्य का रूप ग्रहण करती है। यद्यपि भाषा के मौखिक रूप द्वारा भी साहित्य-सृजन होता है परन्तु वह अत्यन्त सीमित और देश-काल से नियन्त्रित होता है। व्यापक धरातल पर साहित्य की अभिव्यक्ति को स्थायित्व प्रदान करने का गौरव लेखन-कौशल को ही प्राप्त है।

6. लेखन-कौशल का महत्व इस दृष्टि से भी स्वतः स्पष्ट है कि प्रत्येक लेखन-व्यवस्था के साथ उसकी संस्कृति भी सम्बद्ध रहती है। लेखन के माध्यम से सम्बद्ध संस्कृति का संरक्षण, सम्वर्धन और संक्रमण होता है। लेखन-कौशल से परिचित होने के साथ ही छात्र भाषाई संस्कृति से भी परिचित होता है। इस प्रकार अन्य भाषा का अध्येता लेखन-कौशल के माध्यम से ही भाषा मे निहित संस्कृति की जानकारी प्राप्त करता है। लेखन-कौशल की महत्ता इस दृष्टि से स्वतः स्पष्ट है।

अतः किसी समाज की संस्कृति से अवगत होने के लिए उस मानव समुदाय की भाषा को पढ़ना और लिखना सीखना अत्यन्त जरूरी है। लेखन के माध्यम से लेखक पाठकों तक अपने विचारों तथा भावों को सम्प्रेषित कर सकता है। इतना ही नही, अपने उच्चतम रूप में यह सर्जनात्मक लेखन का भी एकमात्र माध्यम है। लेखन के माध्यम से ही वह अपने विचारों तथा भावों को साहित्यिक रचना के रूप में प्रस्तुत कर सकता है और अपनी सर्जनात्मक प्रतिभा को विकसित कर सकता है।

वस्तुतः लेखन-कौशल का शिक्षण भाषाई कौशलों में विशेष महत्व रखता है। इसका कारण यह है कि वार्तालाप तथा वाचन की तुलना में लेखन एक जटिल कौशल है। इसमें शैलीगत तत्व वार्तालाप की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है। वार्तालाप में विचारों की मौखिक अभिव्यक्ति वक्ता की भाव-भंगिमा, अनुतान-साँचे तथा विवृति द्वारा अधिक स्पष्ट होती है। परन्तु लेखन में भाषा के चयनित प्रयोग के साथ सी साथ शैलीगत विशेषताएँ भी अपेक्षित है; भाषा की संरचना और शब्द-भण्डार पर पर्याप्त अधिकार भी आवश्यक होता है। अतः लेखन-कौशल को विविध कुशलताओं का समन्वित रूप माना जा सकता है।

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