9/06/2020

वापसी, हिन्दी कहानी

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लेखक का संक्षिप्त परिचय; उषा प्रियंवदा का जन्म 24 दिसम्बर 1931 को इलाहाबाद मे हुआ। इलाहाबाद विश्व विद्यालय से ही उन्होंने अंग्रेजी मे स्नातकोत्तर उपाधि अर्जित की। "कितना बड़ा झूठ" "जिन्दगी और गुलाब" फिर बसंत आया" उनके कहानी संग्रह है। "पहचान स्वंभे लाल दीवार" तथा रूकोगी नही राधिका" उनके उपन्यास है।

हिन्दी कहानी/वापसी

गजाधर बाबू ने कमरे मे जमा समान पर एक नजर दौड़ाई-दो बक्स, डोलची, बालटी- "यह डिब्बा कैसा है, गनेशी?" उन्होंने पूछा। गनेशी बिस्तर बाँधता हुआ, कुछ गर्व, कुछ दुःख, कुछ लज्जा से बोला," घरवाली ने कुछ बेसन के लड्डू रख दिए है। कहा, बाबूजी को पसंद थे। अब कहाँ हम गरीब लोग, आपकी कुछ खातिर कर पाएँगे। " घर जाने की खुशी मे भी गजाधर बाबू ने एक विषाद का अनुभव किया, जैसे एक परिचित स्नेह-आदरमय, सहज संसार से उनका नाता टूट रहा था।
" कभी-कभी हम लोगों भी खबर लेते रहिएगा। " गनेशी बिस्तर मे रस्सी बाँधता हुआ बोला।
" कभी कुछ जरूरत हो तो लिखना गनेशी! इस अगहन तक बिटिया की शादी कर दो।"
गनेशी ने अँगोछे के छोर से आँखें पोंछी, " अब आप लोग सहारा न देंगे तो कौन देगा! आप यहाँ रहते तो शादी मे कुछ हौसला रहता।"
गजाधर बाबू चलने को तैयार थे। रेलवे क्वार्टर का वह कमरा, जिसमे उन्होंने कितने वर्ष बिताए थे, उनका समान हट जाने से कुरूप और खाली-खाली लग रहा था। आँगन मे रोपे पौधे भी जान-पहचान के लोग ले गए थे; और जगह-जगह मिट्टी बिखरी हुई थी। पर पत्नी, बाल-बच्चों के साथ रहने की कल्पना मे यह बिछोह एक दुर्बल लहर की तरह उठकर विलीन हो गया।
गजाधर बाबू खुश थे, बहुत खुश। पैंतीस साल की नौकरी के बाद वह रिटायर होकर जा रहे थे। इन वर्षों में अधिकांश समय उन्होंने अकेले रहकर काटा था। उन अकेले क्षणों मे उन्होने इसी समय की कल्पना की थी, जब वह अपने परिवार के साथ रह सकेंगे। इसी आशा के सहारे वह अपने अभाव का बोझ ढो रहे थे। संसार की दृष्टि मे उनका जीवन सफल कहा जा सकता था। उन्होंने शहर मे एक मकान बनवा लिया था। बड़े लड़के अमर और लड़की कान्ति की शादियाँ कर दी थी। दो बच्चे ऊँची कक्षाओं मे पढ़ रहे थे। गजाधर बाबू नौकरी के कारण प्रायः छोटे स्टेशनों पर रहे और उनके बच्चे तथा पत्नी शहर मे, जिससे पढ़ाई मे बाधा न हो। गजाधर बाबू स्वभाव से बहुत स्नेही व्यक्ति थे और स्नेह के आकांक्षी भी। जब परिवार साथ था, डयूटी से लौटकर बच्चों से हँसते-बोलते, पत्नी से कुछ मनोविनोद करते।
उन सबके चले जाने से उनके जीवन मे गहन सूनापन भर उठा। खाली क्षणों मे उनसे घर मे टिका न जाता। कवि-प्रकृति के न होने पर भी उन्हें पत्नी की स्नेहपूर्ण बाते याद आती रहती। दोपहर मे गर्मी होने पर भी दो बजे तक आग जलाए रहती; और उनके स्टेशन से वापस आने पर गरम-गरम रोटियाँ सेंकती- उनके खा चुकने और मना करने पर भी थोड़ा सा कुछ और थाली मे परोस देती; और बड़े प्यार से आग्रह करती। जब वह थके-हारे बाहर से आते, तो उनकी आहट पा वह रसोई के द्वारा आती; और उनकी सलज्ज आँखें मुस्कुरा उठतीं। गजाधर बाबू को तब हर छोटी बात भी याद आती; और वह उदास हो उठते। अब कितने वर्षों बाद यह अवसर आया था जब वह फिर उसी स्नेह और आदर के मध्य रहने जा रहे थे।
टोपी उतारकर गजाधर बाबू ने चारपाई पर रख दी, जूते खोलकर नीचे खिसका दिए। अन्दर से रह-रहकर कहकहों की आवाज आ रही थी। इतवार का दिन था उनके सब बच्चे इकट्ठे होकर नाश्ता कर रहे थे। गजाधर बाबू के सूखे चेहरे पर स्निग्ध मुस्कान आ गई। उसी तरह मुस्कराते हुए वह बिना खाँसे अंदर चले आए। उन्होंने देखा कि नरेन्द्र कमर पर हाथ रखे शायद गत रात्रि की फिल्म मे देखे गए किसी नृत्य की नकल कर रहा था और बसन्ती हँस-हँसकर दुहरी हो रही थी। अमर की बहू को अपने तन-बदन, आँचल या घूँघट का कोई होश न था। वह उन्मुक्त रूप से हँस रही थी। गजाधर बाबू को देखते ही नरेन्द्र धप्प-से बैठ गया और चाय का प्याला उठाकर मूँह से लगा लिया। बहू को होश आया और उसने झट से माथा ढँक लिया। केवल बसन्ती का शरीर रह-रहकर हँसी दबाने के प्रयत्न मे हिलता रहा।
गजाधर बाबू ने मुस्कुराते हुए उन लोगों को देखा। फिर कहा," क्यों नरेन्द्र नकल हो रही थी?' ' ' कुछ नही बाबूजी।" नरेन्द्र ने सिटापिटाकर कहा। गजाधर बाबू ने चाहा था, कि वह भी इस मनोविनोद मे भाग लेते, पर उनके आते ही जैसे सब कुण्ठित हो चुप हो गए। इससे उनके मन मे थोड़ी-सी खिन्नता उपज आई। बैठते हुए बोले," बसन्ती, चाय मुझे भी देना। तुम्हारी अम्मा की पूजा अभी चल रही है क्या?"
बसन्ती ने माँ की कोठरी की ओर देखा," अभी आती होगी" , और प्याले मे उनके लिए चाय छानने लगी। बहु चुपचाप पहले ही चली गई थी। अब नरेन्द्र भी चाय का आखिरी घूँट पीकर उठ खड़ा हुआ। केवल बसन्ती, पिता के लिहाज मे, चौके मे बैठी माँ की राह देखने लगी। गजाधर बाबू ने एक घूँट चाय पी, फिर कहा" बैटी, चाय तो फीकी है।"
"लाइए, चीनी और डाल दूँ", बसन्ती बोली।
"रहने दो, तुम्हारी अम्मा जब आएँगी, तभी पी लूँगा।"
थोड़ी देर मे उनकी पत्नी हाथ मे अध्य्र (जल) का लौटा लिए निकलीं और अशुद्ध स्तुति कहते हुए तुलसी मे दिया। उन्हें देखते ही बसन्ती भी उठ गई। पत्नी ने आकर गजाधर बाबू को देखा और कहा," अरे, आप अकेले बैठे है- ये सब कहाँ गए?" गजाधर बाबू के मन मे फाँस सी करक उठी, " अपने-अपने काम मे लग गए है- आखिर बच्चे ही है।
पत्नी आकर चौके मे बैठ गई। उन्होंने नाक-भौं चढ़ाकर चारों ओर जूठे बर्तनों को देखा। फिर कहा," सारे मे जूठे बर्तन पड़े है। इस घर मे धरम-करम कुछ नही। पूजा करके सीधे चौके मे घुसों।" फिर उन्होंने नौकर को पुकारा, जब उत्तर न मिला तो एक बार और उच्च स्वर मे, फिर पति की ओर देखकर बोलीं," बहू ने भेजा होगा बाजार।" और एक लम्बी साँस लेकर चुप हो हो गई।
गजाधर बाबू बैठकर चाय और नाश्ते का इन्तजार करते रहे। उन्हें अचानक ही गनेशी की याद आ गई। रोज सुबह, पैसेन्जर आने से पहले वह गरम-गरम पूरियाँ और जलेबी बनाता था। गजाधर बाबू जब तक उठकर तैयार होते, उनके लिए जलेबियाँ और चाय लाकर रख देता था। चाय भी कितनी बढ़िया, काँच के गिलास मे ऊपर तक भरी: लबालब, पूरे ढाई चम्मच चीनी और गाढ़ी मलाई। पैसेंजर भले ही रानीपुर लेट पहुँचे, गनेशी ने चाय पहुँचाने मे कभी देर नही की। क्या मजाल कि कभी उससे कुछ कहना पड़े।
पत्नी की शिक़ायत- भरा स्वर सुन उनके विचारों मे व्याघात पहुँचा। वह कह रही थी," सारा दिन इसी खिच-खिच मे निकल जाता है। इस गृहस्थी का धन्धा पीटते-पीटते उमर बीत गई। कोई जरा हाथ भी नही बँटाता।"
"बहु क्या किया करती है?" गजाधर बाबू ने पूछा।
"पड़ी रहती है। बसन्ती को तो, फिर कहो कि काॅलेज जाना होता है।"
गजाधर बाबू ने जोश मे आकर बसन्ती को आवाज दी। बसन्ती भाभी  के कमरे से निकली तो गजाधर बाबू ने कहा," बसन्ती, आज से शाम का खाना बनाने की जिम्मेदारी तुम पर है। सुबह का भोजन तुम्हारी भाभी बनाएगी।" बसन्ती मुँह लटकाकर बोली- "बाबूजी, पढ़ना भी तो होता है।"
गजाधर बाबू ने प्यार से समझाया," तुम सुबह पढ़ लिया करो। तुम्हारी माँ हुई बुढ़ी, उनके शरीर मे अब वह शक्ति नही बची है। तुम हो, तुम्हारी भाभी है, दोनों को मिलकर काम मे हाथ बँटाना चाहिए।
बसन्ती चुप रह गई। उसके जाने के बाद उसकी माँ ने धीरे से कहा," पढ़ने का तो बहाना है। कभी जी ही नही लगता, लगे कैसे? शीला से ही फुरसत नही, बड़े-बड़े लड़के है उस घर मे। हर वक्त वहां घुसा रहना, मुझे नही सुहाता। मना करूँ तो सुनती नही।"
नाश्ता कर गजाधर बाबू बैठक मे चले गए। घर छोटा था; और ऐसी व्यवस्था हो चुकी थी कि उसमे गजाधर बाबू के रहने के लिए कोई स्थान न बचा था। जैसे किसी मेहमान के लिए कुछ अस्थायी प्रबंध कर दिया जाता है, उसी प्रकार बैठक मे कुर्सियों को दीवार से सटाकर बीच मे गजाधर बाबू के लिए, पतली-सी चारपाई डाल दी गई थी। गजाधर बाबू उस कमरे मे पड़े-पड़े कभी-कभी अनायास ही इस अस्थायित्व का अनुभव करने लगते। उन्हें याद हो आती उन रेलगाड़ियों की जो की, जो आती और थोड़ी देर रूककर किसी और लक्ष्य की और चली जातीं।
घर छोटा होने के कारण बैठक मे ही अब उनका प्रबंध किया था। उनकी पत्नी के पास अन्दर एक छोटा कमरा अवश्य था, पर वह एक ओर अचारों के मर्तबान, दाल, चावल के कनस्तर और घी के डिब्बे से घिरा था। दूसरी ओर पुरानी रजाइयाँ, दरियों मे लिपटी और रस्सी से बँधी रखी थी। उनके पास एक बड़े से टीन के बक्स मे घर-भर के गरम कपड़े थे। बीच मे एक अलगनी बँधी हुई थी, जिस पर प्रायः बसन्ती के कपड़े लापरवाही से पड़े रहते थे। वह भरसक उस कमरे मे नही जाते थे। घर का दूसरा कमरा अमर और उसकी बहू के पास था; तीसरा कमरा, जो सामने की ओर था, बैठक था। गजाधर बाबू के आने से पहले उसमे अमर की ससुराल से आया बेंत की तीन कुर्सियों का सेट पड़ा था।
कुर्सियों पर नीली गिद्दयाँ और बहु के हाथों के कढ़े कुशन थे।
जब कभी उनकी पत्नी को कोई लम्बी  शिकायत करनी होती तो अपनी चटाई बैठक मे डाल पड़ जाती थी। वह एक दिन चटाई लेकर आ गई। गजाधर बाबू ने घर-गृहस्थी की बाते छेड़ी, वह घर का रवैया देख रहे थे। बहुत हल्के- से उन्होंने कहा कि अब हाथ मे पैसा कम रहेगा, कुछ खर्च कम होना चाहिए।
" सभी खर्च तो वाजिब है, किसका पेट काटूँ? यही जोड़-गाँठ करते-करते बूढ़ी हो गई-न मन का पहना; न ओढ़ा।
गजाधर बाबू ने आहत, विस्मित दृष्टि से पत्नी को देखा। उनसे अपनी हैसियत छिपी न थी। उनकी पत्नी तंगी का अनुभव कर उसका उल्लेख करती, यह स्वाभाविक था, लेकिन उनमे सहानुभूति का पूर्ण अभाव गजाधर बाबू को बहुत खटका। उससे यदि राय-बात की जाती कि प्रबंध कैसे हो तो उन्हें चिन्ता कम, सन्तोष अधिक होता। लेकिन उनसे तो केवल शिकायत की जाती थी, जैसे परिवार कि सब परेशानियों के लिए वही जिम्मेदार थे।
" तुम्हें किस बात की कमी है अमर की माँ। घर मे बहु है, लड़के-बच्चे हैं, सिर्फ रूपये से ही आदमी आमीर नही होता," गजाधर बाबू ने कहा; और कहने के साथ ही अनुभव किया- यह उनकी आन्तरिक अभिव्यक्ति थी- ऐसी कि उनकी पत्नी नही समझ सकती। " हाँ, बड़ा सुख है न बहू से। आज रसोई करने गई है; देखो क्या होता है? " कहकर पत्नी ने आँखें मूँदी; और सो गयीं। गजाधर बाबू बैठे हुए पत्नी को देखते रह गए।
यही थी क्या उनकी पत्नी, जिसके हाथों के कोमल स्पर्श, जिसकी मुस्कान की याद मे उन्होने सम्पूर्ण जीवन काट दिया था? उन्हे लगा कि वह लावाण्यमयी युवती जीवन की राह मे कही खो गई है; और उसकी जगह आज जो स्त्री है, वह उनके मन और प्राणों के लिए नितान्त अपरिचिता है। गाढ़ी नींद मे डूबी उनकी पत्नी का भारी-सा शरीर बहुत बेडौल और कुरूप लग रहा था। चेहरा श्रीहीन और रूखा था। गजाधर बाबू देर तक निस्संग दृष्टि से पत्नी को देखते रहे; और फिर लेटकर छत की ओर ताकने लगे।
अंदर कुछ गिरा और उनकी पत्नी हड़बड़ाकर उठ बैठीं, " लो बिल्ली ने कुछ गिरा दिया शायद", और वह अंदर भागी। थोड़ी देर मे लौटकर आई तो उनका मुँह फूला हुआ था," देखा बहू को, चौका खुला छ़ोड़ आई। बिल्ली ने दाल की पतीली गिरा दी। सभी तो खाने को है। तरकारो और चार पराँठे बनाने मे सारा डिब्बा घी उँड़ेलकर रख दिया। जरा-सा दर्द नही है। कमाने वाला हाड़ तोड़े; और यहाँ चीचें लुटें। मुझे तो मालूम था कि यह सब काम किसी के बस का नही है।
गजाधर बाबू को लगा कि पत्नी कुछ और बोलेगी तो उनके कान झनझना उठेंगे। ओंठ भींच, करवट लेकर उन्होंने पत्नी की और पीठ कर ली।
रात का भोजन बसन्ती ने जान-बूझकर ऐसा बनाया था कि कौर तक निगला न जा सके। गजाधर बाबू चुपचाप खाकर उठ गए, पर नरेन्द्र थाली सरकाकर उठ खड़ा हुआ और बोला," मैं ऐसा खाना नही खा सकता।"
बसन्ती तुनककर बोली," तो न खाओ, कौन तुम्हारी खुशामद करता है!"
" तुमसे खाना बनाने को कहा किसने था?" नरेन्द्र चिल्लाया।"
"बाबूजी ने।"
"बाबूजी को बैठे-बैठे यही सूझता है।"
बसन्ती को उठाकर माँ ने नरेन्द्र को मनाया और अपने हाथ से कुछ बनाकर खिलाया। गजाधर बाबू ने बाद मे पत्नी से कहा," इतनी बड़ी लड़की हो गई। उसे बनाने तक का शऊर नही आया!"
अरे आता सब-कुछ है, करना नही चाहती," पत्नी ने उत्तर दिया। अगली शाम माँ को रसोई मे देख कपड़े बदलकर बसन्ती बाहर आई तो बैठक से गजाधर बाबू ने टोक दिया," कहाँ जा रही हो?"
" पड़ोस मे शीला के घर," बसन्ती ने कहा।
" कोई जरूरत नही है,अन्दर जाकर पढ़ो", गजाधर बाबू ने कड़े स्वर मे कहा। कुछ देर अनिश्चित खड़े रहकर बसन्ती अन्दर चली गई। गजाधर बाबू शाम को टहलने चले जाते थे, लौटकर आए तो पत्नी ने कहा," क्या कह दिया बसन्ती से? शाम मे मुँह लपेटे पड़ी है। खाना भी नही खाया।
गजाधर बाबू खिन्न हो आए। पत्नी कि बात का उन्होंने कुछ उत्तर नही दिया। उन्होंने मन में निश्चय कर लिया कि बसन्ती की शादी जल्दी ही कर देनी है। उस दिन के बाद बसन्ती पिता से बची-बची रहने लगी। जाना होता तो पिछवाड़े से जाती। गजाधर बाबू ने दो-एक बार पत्नी से पूछा तो उत्तर मिला- रूठी हुई है। गजाधर बाबू को और रोष हुआ। लड़की के इतने मिजाज! जाने को रोक दिया तो पिता से बोलेगी नही! फिर उनकी पत्नी ने सूचना दी की अमर अगल रहने की सोच रहा है।
" क्यों?" गजाधर बाबू ने चकित होकर पूछा।
पत्नी ने साफ-साफ उत्तर नही दिया। अमर और उसकी बहू को शिकायतें बहुत थी। उनका कहना था कि गजाधर बाबू हमेशा बैठक मे ही पड़े रहते है, कोई आने-जाने वाला हो तो कहीं बिठाने को जगह नही। अमर को अब भी वह छोटा-सा समझते, और मौके-बेमौके टोक देते थे। बहू को काम करना पड़ता था; और सास जब-तब फूहड़पन पर ताने देती रहती थी। " हमारे आने के पहले भी कभी ऐसी बात हुई थी? " गजाधर बाबू ने पूछा। पत्नी ने सिर हिलाकर जताया कि नही। पहले अमर घर का मालिक बनकर रहता था। बहू को कोई रोक-टोक न थी। अमर के दोस्तों का प्रायः यहीं अड्डा जमा रहता था, अन्दर से नाश्त-चाय तैयार होकर जाता रहता था। बसन्ती को भी वही अच्छा लगता था।
गजाधर बाबू ने बहुत धीरे से कहा," अमर से कहो, जल्दबाजी की कोई जरूरत नही है।"
अगले दिन वह सुबह घूमकर लौटे तो उन्होंने पाया कि बैठक मे उनकी चारपाई नही है। अंदर आकर पूछने वाले ही थे कि उनकी दृष्टि रसोई के अन्दर बैठी पत्नी पर पड़ी। उन्होंने यह कहने को मुँह खोला कि बहू कहाँ है, पर कुछ याद कर चुप हो गए। पत्नी की कोठरी मे झाँका तो अचार, रजाइयों और कनस्तरों के मध्य अपनी चारपाई लगी पाई। गजाधर बाबू ने कोट उतारा और कहीं टाँगने को दीवार पर नजर दौड़ाई। फिर उसे मोड़कर अलगनी के कुछ कपड़े खिसकाकर एक किनारे टाँग दिया। कुछ खाए बिना ही अपनी चारपाई पर लेट गए। कुछ भी हो, मन आखिरकार बूढ़ा ही था। सुबह-शाम कुछ देर टहलने अवश्य चले जाते पर आते-आते थक उठते थे। गजाधर बाबू को अपना बड़ा-सा, खुला हुआ क्वार्टर याद आ गया। निश्चिन्त जीवन, सुबह पैसेंजर ट्रेन आने पर स्टेशन की चहल-पहल, चिर-परिचित चेहरे और पटरी पर रेल के पहियों की खट्-खट् जो उनके लिए मधुर संगीत की तरह था। तूफान और डाकगाड़ी के इन्जनों की चिंघाड़ उनकी अकेली रातों की साथी थी। सेठ रामजीमल के मिल के कुछ लोग कभी-कभी पास आ बैठते, वही उनका दायरा था, वही उनके साथी। वह जीवन अब उन्हें एक खोई निधि-सा प्रतीत हुआ। उन्हें लगा कि वह जिन्दगी द्वारा ठगे गए है। उन्होंने जो कुछ चाहा, उसमे से उन्हें एक बूँद भी न मिली।
लेटे हुए वह घर के अन्दर से आते विविध स्वरों को सुनते रहे। बहू और सास की छोटी-सी झड़प, बालटी पर खुले नल की आवाज, रसोई के बर्तनों की खटपट और उसी मे गोरैयों का वार्तालाप, और अचानक ही उन्होंने निश्चिय कर लिया कि अब घर की किसी बात मे दखल न देंगे। यदि गृहस्वामी के लिए पूरे घर मे एक चारपाई की जगह यही है तो यही सही, वे यहीं पड़े रहेंगे। अगर कहीं और डाल दी गई तो वहां चले जाएँगे। यदि बच्चों के जीवन मे उनके लिए कहीं स्थान नही तो अपने ही घर मे परदेशी की तरह पड़े रहेंगे; और उस दिन के बाद सचमुच गजाधर बाबू कुछ नही बोले। नरेन्द्र माँगने आया तो बिना कारण पूछे उसे रूपये दे दिए; बसन्ती काफी अँधेरा हो जाने के बाद भी पड़ोस मे रही तो भी उन्होंने कुछ नही कहा। उन्हें सबसे बड़ा गम यह था कि उनकी पत्नी ने भी उनमे कुछ परिवर्तन लक्ष्य नही किया। वह मन-ही-मन कितना भार ढो रहे है, इससे वह अनजान ही बनी रही। बल्कि उन्हें पति के घर के मामले मे हस्तक्षेप न करने के कारण शान्ति ही थी। कभी-कभी कह भी उठती," ठीक ही है, आप बीच मे न पड़ा कीजिए। बच्चे बड़े हो गए है। हमारा जो कर्तव्य था, कर रहे हैं, पढ़ा रहे है, शादी कर देंगे।"
गजाधर बाबू ने आहत दृष्टि से पत्नी को देखा। उन्होंने अनुभव किया कि वह पत्नी व बच्चों के लिए केवल धनोपार्जन के निमित्त मात्र है। जिस व्यक्ति के अस्तित्व से पत्नी माँग मे सिन्दूर डालने की अधिकारी है, समाज मे उसकी प्रतिष्ठा है, उसके सामने वह दो वक्त भोजन की थाली रख देने से सारे कर्त्तव्यों से छुट्टी पा जाती है। वह घी और चीनी के डिब्बों मे इतनी रमी हुई है कि अब वही उसकी सम्पूर्ण दुनिया बन गई है। गजाधर बाबू उसके जीवन के केन्द्र नही हो सकते। उनका तो अब बेटी की शादी के लिए भी उत्साह बुझ गया। किसी बात मे हस्तक्षेप न करने के निश्चय के बाद भी उनका अस्तित्व उस वातावरण का एक भाग न बन सका। उनकी उपस्थिति उस घर मे ऐसी असंगत लगने लगी थी, जैसे सजी हुई बैठक मे उनकी चारपाई थी। उनकी खुशी एक गहरी उदासीनता मे डूब गई।
इतने सब निश्चयों के बावजूद भी गजाधर बाबू एक दिन बीच मे दखल दे बैठे। पत्नी स्वभावानुसार नौकर की शिकायत कर रही थी," कितना लापरवाह है, बाजार की हर चीज मे पैसा बनाता है। खाने बैठता है तो खाता ही चला जाता है।" गजाधर बाबू को बराबर यह महसूस होता रहता था कि उनके घर का रहन-सहन और खर्च उनकी हैसियत से कहीं ज्यादा है। पत्नी की बात सुनकर लगा कि नौकर का खर्च बिल्कुल बेकार है। छोटा-मोटा काम है, घर मे तीन मर्द है, कोई-न-कोई कर ही देगा। उन्होंने उसी दिन नौकर का हिसाब कर दिया। अमर दफ्तर से आया तो नौकर को पुकारने लगा। अमर की बहू बोली," बाबूजी ने नौकर छुड़ा दिया।"
"क्यों?"
"कहते है: खर्च बहुत है।"
यह वार्तालाप बहुत सीधा-सा था, पर जिस टोन मे बहु बोली, गजाधर बाबू को खटक गया। उस दिन जी भारी होने के कारण गजाधर बाबू टहलने नही नए थे। आलस्य मे उठकर बत्ती भी नही जलाई- इस बात से बेखबर नरेन्द्र माँ से कहने लगा," अम्मा, तुम बाबूजी से कहती क्यों नही? बैठे-बिठाए कुछ नही तो नौकर ही छुड़ा दिया। अगर बाबूजी यह समझें कि मै साइकिल पर गेहूँ रख आटा पिसाने जाऊँ तो मुझसे यह नही होगा।"""हाँ अम्मा", बसन्ती का स्वर था, मैं काॅलेज भी जाऊँ; और लौटकर घर मे झाड़ू भी लगाऊँ। यह मेरे बस की बात नही है।"
"बूढ़े आदमी है" अमर भुनभुनाया," चुपचाप पड़े रहें। हर चीज मे दखल क्यों देते हैं?" पत्नी ने बड़े व्यंग्य से कहा ," और कुछ नही सूझा तो तुम्हारी बहू को ही चौके मे भेज दिया। वह गई तो पन्द्रह दिन का राशन पाँच दिन में बनाकर रख दिया।", बहू कुछ कहे, इससे पहले वह चौके मे घुस गईं। कुछ देर मे अपनी कोठरी मे आई और बिजली जलाई तो गजाधर बाबू को लेटे देख बड़ी सिटपिटाई। गजाधर बाबू की मुखमुद्रा से वह उनके भावों का अनुमान न लगा सकीं। वह चुप, आँखे बन्द किए लेटे रहे।
गजाधर बाबू चिट्ठी हाथ मे लिए अन्दर आए; और पत्नी को पुकारा। वह भीगे हाथ लिए निकलीं और आँचल से पोंछती हुई पास आ खड़ी हुईं। गजाधर बाबू ने बिना किसी भूमिका के कहा," मुझे सेठ रामजीमल की चीनी-मिल मे नौकरी मिल गई है। खाली बैठे रहने से तो चार पैसे घर मे आएँ, वही अच्छा है। उन्होंने तो पहले ही कहा था, मैंने ही मना कर दिया था।" फिर कुछ रूककर, जैसे बुझी हुई आग मे एक चिनगारी चमक उठे, उन्होंने धीमे स्वर मे कहा," मैंने सोचा था कि बरसों तुम सबसे अलग रहने के बाद अवकाश पाकर परिवार के साथ रहूँगा। खैर, परसों जाना है। तुम भी चलोगी? " " मैं?" पत्नी ने सकपकाकर कहा," मैं चलूँगी तो यहाँ का क्या होगा? इतनी बड़ी गृहस्थी, फिर सयानी लड़की...."
बात बीच मे काट गजाधर बाबू ने हताश स्वर मे कहा," ठीक है, तुम यहीं रहो। मैने तो ऐसे ही कहा था। " और गहरे मौन मे डूब गए।
नरेन्द्र ने बड़ी तत्परता से बिस्तर बाँधा और रिक्शा बुला लाया। गजाधर बाबू का टिन का बक्स और पतला-सा बिस्तर उस पर रख दिया गया। नाश्ते के लिए लड्डू और मठरी की डलिया उस पर रख गजाधर बाबू रिक्शे पर बैठे गए। एक दृष्टि उन्होंने अपने परिवार पर डाली। फिर दूसरी ओर देखने लगे, रिक्शा चल पड़ा। उनके जाने के बाद सब अन्दर लौट आए, बहू ने अमर से पूछा," सिनेमा ले चलिएगा न?" बसन्ती ने उछलकर कहा," भइया, हमें भी।"
गजाधर बाबू की पत्नी सीधे चौके मे चली गई। बची हुई मठरियों को कटोरदान मे रखकर अपने कमरे मे लाई और कनस्तरों के पास रख दिया। फिर बाहर आकर कहा," अरे नरेन्द्र, बाबूजी की चारपाई कमरे से निकाल दे। उसमें चलने तक की जगह नही है।

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