9/25/2020

सामाजिक अनुसंधान (शोध) के चरण

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सामाजिक अनुसंधान (शोध) के चरण (samajik anusandhan ke charan)

सामाजिक शोध कि प्रक्रिया कई चरणों से होकर गुजरती है जिसके प्रत्येक चरण मे कई शोध क्रियायें सम्पादित की जाती है। इसमें चरणों के निर्धारण अर्थात् कौन सा चरण पूरा होने के बाद कौन सा चरण शुरू होगा, इस सम्बन्ध मे कोई निश्चित नियम नही है। फिर भी आमतौर पर शोध के विभिन्न चरणों मे कुछ अनुक्रम को ध्यान मे रखा जाता है अन्यथा शोध कार्य से अर्थपूर्ण निष्कर्षों का निष्पादन कठिन हो जाता है। वैसे अनुभवी व दक्ष शोधकर्ता शोध कार्य के विभिन्न चरणों को अपने ढंग से व्यवस्थित कर लेते है। 

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सामाजिक अनुसंधान मे भी वैज्ञानिक पद्धति का ही प्रयोग किया जाता है। इसीलिए सामाजिक अनुसंधान मे भी सामान्य वैज्ञानिक पद्धति के प्रमुख चरणों को अपनाया जाता है। वैज्ञानिक पद्धति के चरणों के सम्बन्ध मे विद्वानों मे मतैक्य नही है। कतिपय प्रमुख विचारकों के मत निम्न प्रकार है---

डाॅ. एच. के. कपिल के ने अपनी पुस्तक " अनुसंधान विधियां " मे अनुसंधान (शोध) के निम्नलिखित चरणों का उल्लेख किया है--

1. विषय का चयन।

2. सम्बंधित साहित्य का सर्वेक्षण।

3. अध्ययन हेतु समस्या को उठाना।

4. अध्ययन समस्या का युक्तिसंगत आधार प्रस्तुत करना।

5. अध्ययन से सम्बंधित अवधारणाओं, निर्मितों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करना।

6.अध्ययन के उद्देश्यों को बताना। 

7. अध्ययन के क्षेत्र को सीमाबध्द करना।

8. अध्ययन के लिए एक अथवा एक से अधिक परिकल्पनाओं की रचना।

9. अनुसंधान अभिकल्प अथवा विधि तन्त्र का चयन तथा प्रतिदर्श प्रक्रिया की व्याख्या। 

10. आंकड़ों का संकलन।

11. आंकड़ों का व्यवस्थापन तथा विश्लेषण।

12. परिकल्पना का सत्यापन।

13. निष्कर्ष तथा सामान्यीकरण।

14. प्रतिवेदन प्रस्तुतीकरण।

संक्षेप मे, सामाजिक अनुसंधान मे निम्म चरणों का उपयोग किया जाता है--

1. समस्या का चयन एवं विश्लेषण 

सामाजिक अनुसंधान का प्रथम चरण है, समस्या का चुनाव एवं विश्लेषण। सर्वप्रथम अनुसन्धानकर्ता को उस क्षेत्र तथा विषय का चयन करना होता है, जिसमे वह अनुसंधान करना चाहता है। इस अवस्था मे अनुसन्धानकर्ता को अध्ययन सम्बन्धी समस्या का स्पष्ट ज्ञान नही होता। समस्या का चयन करने के पश्चात समस्या की व्याख्या की जाती है। उस समस्या से सम्बंधित सभी प्रकार के विभिन्न तथ्यों की छान-बीन कि जाती है। इसके लिए समस्या से सम्बंधित सभी पुस्तकों, विवरणों, संदर्भ ग्रंथों, पत्र-पत्रिकाओं आदि का अध्ययन किया जाता है। इस प्रकार समस्या को समझने का प्रयास किया जाता है। जब समस्या के सभी पक्षों का एक स्पष्ट व पूर्ण चित्र अध्ययनकर्ता के सम्मुख आ जाता है, तब ही वह अपने अध्ययन क्षेत्र को चुन सकता है।

2. उपकल्पना का निर्माण 

सामाजिक अनुसंधान का दूसरा चरण है एक कार्यवाहक उपकल्पना का निर्माण करना। श्री लुम्डबर्ग के शब्दों मे ," उपकल्पना एक प्रयोग सम्बन्धी सामान्यीकरण है, जिसकी वैधता की जांच अभी शेष रहती है। वास्तव मे उपकल्पना के अभाव मे किसी भी प्रकार के अनुसंधान की कल्पना नही की जा सकती। अतः समस्या का स्पष्टीकरण करने के पश्चात अनुसन्धानकर्ता यह निर्णय करता है कि उसके किस विशेष पहलू पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इसके लिए यह अपने विचार मे एक ऐसा सिद्धांत बनाने का प्रयास करता है कि वह सिध्दान्त सम्भवतः उसके अध्ययन का आधार सिद्ध होगा। इस कल्पना अथवा विचार को ही उपकल्पना कहा जाता है।

3. तथ्यों का अवलोकन 

समस्या का चयन एवं उपकल्पना निर्माण के पश्चात अनुसंधानकर्ता उन सभी तथ्यों का अवलोकन करता है जो उसकी अध्ययन वस्तु से सम्बंधित समस्याओं को समझने मे सहयता प्रदान करते है। इस सम्बन्ध मे एक अनुसन्धानकर्ता को यह बात विशेष रूप से ध्यान मे रखनी चाहिए कि वह केवल उन्हीं तथ्यों का अवलोकन करे जो अध्ययन विषय से सम्बंधित है। 

तथ्यों का अवलोकन करने के पश्चात अध्ययन विषय से सम्बंधित तथ्यों को संकलित करना होता है। सामाजिक अनुसंधान मे तथ्यों का संकलन दो प्रमुख स्त्रोतों से है, जो अनुसंधानकर्ता अपने उपयोग के लिए स्वयं संकलित अथवा संग्रह करता है। इनका संग्रहण बिल्कुल नये सिरे से किया जाता है। ये समंक पूर्णतः मौलिक होते है और अपनी आवश्यकता के अनुसार इनका संग्रहण किया जाता है। द्वैतियक स्त्रोत वे है जो कि विषय के सम्बन्ध मे पहले से ही एकत्रित तथ्यों को प्रदान करते है जैसे सरकारी रिकार्ड, व्यक्तिगत डायरियां आदि। अध्ययन-विषय की आवश्यकतानुसार इन सभी स्त्रोतों से सूचनाओं का संकलन उपकल्पना की वैधता की जांच करने के लिए किया जाता है।

4. तथ्यों का वर्गीकरण एवं सारणीयन 

तथ्यों के संकलन के पश्चात उनका वर्गीकरण एवं सारणीकरण करना होता है। संकलन द्वारा प्राप्त तथ्यों के ढेर के आधार पर किसी भी प्रकार के निष्कर्षों पर नही पहुंचा जा सकता इसलिए उनका उपयुक्त श्रेणियों मे वर्गीकरण एवं सारणीयन किया जाता है ताकि उनमे निहित प्रतिमानों का पता लगाया जा सके। यह कार्य अत्यधिक सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए व इसके लिए प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं की जरूरत होती है। 

5. सामान्यीकरण 

सामाजिक अनुसंधान का पांचवां चरण सामान्यीकरण है। जिसके अन्तर्गत एक अनुसन्धानकर्ता उपल्पना, अवलोकन, संकलन तथा वर्गीकरण के आधार पर अध्ययन वस्तु से सम्बंधित विभिन्न नियमों का निर्माण करने के लिये विभिन्न पद्धतियों का अनुसरण करता है। एक वैज्ञानिक नियम प्रतिपादन का कार्य इस ढंग से करता है कि वह अपनी अध्ययन वस्तु के सम्बन्ध मे निश्चित, स्पष्ट तथा अपरिवर्तनशील नियमों का निर्माण करे। उसके द्वारा प्रतिपादित नियम शाश्वत एवं प्रमाणित तथा सत्यापन लिये हुए हो। उनका परीक्षण भी किया जा सके।

6. प्रतिवेदन 

सामाजिक शोध के अंतिम चरण मे सम्पूर्ण अनुसंधान प्रक्रम के आधार पर एक नियबद्ध संक्षिप्त तथा स्पष्ट प्रतिवेदन प्रस्तुत किया जाता है, जिससे इस अनुसंधान का संदर्भ आगामी अनुसन्धानों के लिए सरलतापूर्वक उपलब्ध हो सके और इस अनुसंधान की जानकारी इस क्षेत्र के अन्य सम्बंधित व्यक्तियों को हो सके।

लुम्डबर्ग के अनुसार 

1. काम चलाऊ प्राक्कल्पना।

2. तथ्यों का अवलोकन तथा लेखन।

3. तथ्यों का वर्गीकरण तथा संगठन।

4. सामान्यीकरण निकालना।

श्रीमती पी. वी. यंग ने सामाजिक शोध (अनुसंधान) के निम्न चरण बतायें है-- 

1. काम चलाऊ उपकल्पना का निर्माण।

2. तथ्यों का अवलोकन, संकलन एवं लेखन।

3. लिखित तथ्यों, सारणियों या अनुक्रमों का वर्गीकरण।

4. वैज्ञानिक समान्यीकरण।

डब्लयू. जी. श्लूटर के ने अनुसंधान योजना के 15 स्तर बतलाये है जो इस प्रकार है--

1. अनुसंधान क्षेत्र, विषय या सामग्री का चुनाव करना।

2. अनुसंधान की समस्या को समझने के लिए क्षेत्र का सर्वेक्षण करना।

3. पुस्तक सूची का निर्माण करना। 

समस्या को परिभाषित करना।

5. समस्या के तथ्यों को अलग करना और रूरेखा तैयार करना।

6. तथ्य और साक्ष्य के आधार पर समस्या के तथ्यों का वर्गीकरण करना।

7. समस्या के तत्वों के आधार पर तथ्यों और साक्ष्यों का निर्धारण करना जिनकी आवश्यकता होगी।

8. समस्या से सम्बंधित तथ्यों और साक्ष्यों की प्राप्ति कहां से होगी इसका अनुमान लगाना।

9. समस्या के हल होने की सम्भावना की जांच।

10. तथ्यों और सूचना का संकलन करना।

11. समंकों को कुछ इस प्रकार व्यवस्थित जमाना कि जिससे विश्लेषण मे सरलता हो।

12. तथ्यों और साक्ष्यों का विश्लेषण और व्याख्या करना।

13. तथ्यों का प्रदर्शन करना।

14. विशिष्ट कथनों, संदर्भों तथा टिप्पणियों का चुनाव व उपयोग करना।

15. अनुसंधान का विवरण प्रस्तुत करने के लिए स्वरूप व शैली को विकसित करना।

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