8/19/2020

व्यावसायिक संगठन के प्रकार या स्वरूप

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व्यावसायिक संगठन के प्रकार या स्वरूप (vyavsayik sangathan ke prakar)

1. एकांकी व्यापार (sole trade)
एकाकी व्यापार, व्यवसायिक इकाई का सार्वधिक प्रचीन एवं सरतम रूप है। यह व्यावसायिक इकाई का वह रूप है जिसे एक व्यक्ति स्थापित करता है। वही व्यक्ति आवश्यक पूँजी लगाता है, संचालन एवं प्रबंध करता है, लाभ प्राप्त करता है, हानि को सहन करता है और व्यापार का समस्त उत्तरदायित्व उसी एक व्यक्ति के कंधो पर होता है।
2. साझेदारी व्यापार (partnership)
सामान्य बोलचाल की भाषा मे विशिष्ट  गुणों वाले व्यक्तियों के सामूहिक संगठन को साझेदारी कहते है। व्यवसायिक संगठन के इस प्रारूप मे दो अथवा दो से अधिक व्यक्ति मिलकर व्यवसाय करते है। वे अपनी अपनी योग्यतानुसार व्यवसाय का प्रबंधन व संचालन करते है तथा पूँजी की व्यवस्था करते है।
3. संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय (Hindu undivided family business)
जब एक परिवार के सभी व्यक्ति मिलकर परिवार के मुखिया अथवा कर्ता के नियंत्रण मे व्यावसा करते है तो ऐसा व्यवसाय संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय कहलाता है। व्यवसाय का यह स्वरूप केवल भारत मे प्रचलित है।
4. संयुक्त स्कन्ध प्रमण्डल (Jonit stock compay) निर्गमित क्षेत्र के अन्तर्गत कम्पनी या संयुक्त स्कन्ध प्रमण्डल लोकप्रिय व्यावसायिक संगठन है। निजि कम्पनी की दशा मे पूँजी सामान्य जनता से प्राप्त नही की जाती। कम से कम दो और अधिकतम 50 व्यक्ति मिलकर एक निजी कम्पनी स्थापित कर सकते है। सार्वजनिक कम्पनी की दशा मे पूँजी प्राप्ति के लिए जनता मे अंश निर्गमित किये जाते है। कम्पनी के सदस्य उसके अंशधारी होते है। कम्पनी का अस्तित्व उसके सदस्यों से पृथक होता है। इसे कृत्रिम व्यक्तित्व प्राप्त होता है। इसका निर्माण (समामेलन) और अन्त (समापन) कम्पनी अधिनियम के अनुसार होता है। भारत मे कम्पनियों के लिए भारतीय कम्पनी अधिनियम, 1956 (india companies Act, 1956) लागू है।
5. सहकारी समिति (co-operative society)
जब एक ही वर्ग विशेष के दो या दो से अधिक व्यक्ति मिलकर किसी समान एवं पारस्परिक लाभ के उद्देश्य से किसी संस्था की स्थापना करते है तो उसे सहकारी समिति कहते है। सहकारिता का सिद्धांत है " प्रत्येक व्यक्ति सबके लिए और सब प्रत्येक के लिए" सहकारी समिति के सदस्य अपने उद्देश्य की पूर्ति इस सिद्धांत के आधार पर करते है-- " पारस्परिक सहायता द्वारा आत्म-सहायता।"
6. संयोजन (combination)
जब आपसी प्रतियोगिता को समाप्त करने, निश्चित लाभ प्राप्त करने, अथवा बाजार पर एकाधिकार करने या अन्य किसी पारस्परिक हित की पूर्ति के उद्देश्य से दो या अधिक व्यावसायिक इकाइयां एकीकृत होती है तो उन्हें संयोजन कहते है। संयोजन के अन्तर्गत सम्मिलित इकाइयां एक ही उद्देश्य के लिए सम्पूर्ण या आंशिक रूप से एक सूत्र मे बँध जाती है। यद्यपि संयोजन का जन्म आपसी रंजिश एवं गला काट प्रतियोगिता के कारण हुआ है।
7. सार्वजनिक उपक्रम (Public enterprise) 
सार्वजनिक राजकीय उपक्रम से आशय ऐसे उपक्रमों से है, जो सरकार द्वारा नियंत्रित एवं संचालित होते है। ऐसे उपक्रम जिनमे अधिकांश (कम से कम 51%) अथवा उससे अधिक करने पर स्वामित्व सरकार का होता है। सार्वजनिक उपक्रम कहलाते है। सार्वजनिक उपक्रम दो प्रकार के होते है-- 1. गैर नियमित (Non-incorporated) 2. निगमित (Incorporated)

व्यावसायिक इकाई के प्रारूप के चयन मे निर्णायक घटक या कारक 

1. स्थायित्व
ऐसे व्यवसायिक संगठनों की स्थापना की जानी चाहिये जिनके स्थायित्व पर सामान्य घटनाओं का कोई प्रभाव न पड़े। कुछ स्वरूप ऐसे होते है जो आकस्मिक घटनाओं के परिणामस्वरूप समाप्त हो जाते है, जैसे कम्पनी की दशा मे, संचालकों की संख्या एक नियत न्यूनतम संख्या से कम होने पर या किसी वैधानिक औपचारिकता का पालन न करने की दशा मे, वह समाप्त हो जाती है।
2. सरकारी नियंत्रण
सामान्यतः सरकारी नीतियों का उद्देश्य समाज को अधिकतम लाभ पहुंचाना होता है। अतः व्यवसाय के स्वरूप को चुनते समय सरकारी नीतियों का भली-भांति अध्ययन करना आवश्यक है।
3. पूँजी की मात्रा
पूँजी आधुनिक व्यावसायिक सफलता का जितना महत्वपूर्ण घटक है, उतना ही कठिन इसकी व्यवस्था करना है। अतः व्यवसायी को पहले व्यापार मे पूँजी की आवश्यकता का अनुमान लगाना चाहिये, तदुपरांत इसकी मात्रा के आधार पर व्यावसायिक इकाई के प्रारूप का चुनाव करना चाहियें।
4. व्यावसायिक रहस्यों की गोपनीयता
प्रत्येक व्यवसाय मे कुछ ऐसी गुप्त बाते होती है, जिन पर व्यवसाय की सफलता निर्भर करती है। व्यवसायिक रहस्य की गोपनीयता एवं सुरक्षा की दृष्टि से एकाकी व्यापार सर्वोत्तम रहता है।
5. कर-दायित्व 
व्यवसाय मे अनेक प्रकार के कर सम्बन्धी नियम लागू होते है। इन नियमों के आधार पर व्यवसायियों पर कर-दायित्व उत्पन्न होता है। यह कर-भार कुछ व्यवसायों पर कम तथा कुछ पर अधिक हो सकता है। व्यवसायिक संगठन का वह प्रारूप सबसे अधिक उपयुक्त माना जाता है जिसमे व्यवसायी पर कर-दायित्व न्यूनतम हो।
6. जोखिम
जोखिम,व्यवसाय का एक अनिवार्य अंग है। व्यवसाय के आकार के अनुसार जोखिम कम या अधिक हो सकता है। ऐसे व्यवसायी जो अधिक जोखिम नही उठाना चाहते है, प्रायः एकांकी व्यापार या व्यवसाय चुनते है। लेकिन जो अधिक जोखिम अधिक लाभ (more risk more gain) के सिद्धांत को मानते है, वे प्रायः कम्पनी व्यवसाय को चुनते है।
7. भावी विस्तार
किसी भी व्यावसायिक संगठन के प्रारूप का चयन करते समय भावी विस्तार की सम्भावना पर भी विचार करना चाहिए। प्रारंभ मे छोटे रूप मे स्थापित व्यवसाय मे यदि भावी विस्तार की पर्याप्त सम्भावना हो तो ऐसा व्यवसाय साझेदारी अथवा कम्पनी के स्वरूप को चुनना चाहिए न कि एकाकी व्यापार के रूप मे।

8. लोच
व्यवसाय ऐसा होना चाहिये जिसमे आवश्यकतानुसार परिवर्तन किया जा सके अन्यथा व्यवसाय के स्वामी को सफलता मिले, इसमे सन्देह है।
9. व्यावसाय का भौगोलिक कार्य क्षेत्र
व्यावसायिक क्रियाओं के विस्तार की संभावनाएं व्यापार का आकार निर्धारित करती है। यदि किसी व्यवसाय का क्षेत्र स्थानीय है, तो उसका आकार छोटा होगा और और इसी दशा मे एकाकी स्वरूप उपयुक्त होगा। इसके विपरीत यदि व्यवसाय का कार्यक्षेत्र देश-विदेश तक फैला हुआ है, तो कम्पनी प्रारूप स्थापना करना उपयुक्त होगा।
10. प्रत्यक्ष संबंध तथा निर्देशन
कुछ व्यवसाय ऐसे होते है जिनमे स्वामित्व का व्यक्तिगत नियंत्रण व मार्ग-दर्शन आवश्यक है, दस्तकारी, चित्रकारी आदि से सम्बंधित कार्य। अन्य व्यवसायों मे वैतनिक कर्मचारियों द्वारा भी कार्य कराया जा सकता है। पहले प्रकार के व्यवसायों के लिए एकाकी या साझेदारी स्वरूप उचित रहेगा जबिक दूसरे प्रकार के कार्य के लिए कम्पनी प्रारूप चुनना उचित होगा।
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