6/30/2020

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उदय के कारण

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भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन 

प्राचीनकाल से ही भारत विदेशियों के आकर्षण का केंद्र रहा है। इसी आकर्षण के कारण विदेशी लोग भारत मे व्यापार करने के लिए हमेशा लालयित रहते थे। पुर्तगाली, डच, अंग्रेज एवं फ्रांसीसी ये चार यूरोपीय जातियां व्यापार करने के उद्देश्य से ही भारत आई थी। इनमे अंग्रेज की ईस्ट इण्डिया कम्पनी सबसे प्रमुख थी जो बाद मे राजनीतिक क्षेत्र मे भी दखलंदाजी करने लगी और धीरे-धीरे उसने सम्पूर्ण भारत मे अपना राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित कर लिया।
भारत मे राष्ट्रीय चेतना के उदय का उल्लेख " भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस" के साथ किया जाता है। यद्यपि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना मे दो अंग्रेज प्रशासक एलन ऑक्टेवियन ह्यूम और विलियम वेडरबर्न का बहुत बड़ा योगदान था। ह्यूम साहब को तो कांग्रेस का जनक कहा जाता है। ए. ओ. ह्यूम स्काटलैंड के निवासी थे। वे 1870 से 1879 तक भारत सरकार के सचिव रहे। बाद मे उन्हे स्वतंत्र विचारों के कारण इस पद से हटा दिया गया था।
कांग्रेस का इतिहास ही भारत के स्वतंत्रता संघर्ष का इतिहास कहा जाता हैं। आर.सी. मजूमदार ने लिखा है " क्रांग्रेस की स्थापना के पूर्व और पश्चात्  दूसरी अनेक शक्तियों के द्वारा भी इस उद्देश्य से कार्य किया गया था, लेकिन कांग्रेस ने भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष मे सदैव ही केन्द्र का कार्य किया है। यह वह धुरी थी जिसके चारों ओर स्वतंत्रता की महान गाथा की विविध घटनाएं हुई।

भारत राष्ट्रीय आंदोलन के उदय के कारण (bhartiya rashtriya andolan ke karan)

प्रत्येक देश मे राष्ट्रीय आन्दोलन उन अनेक शक्तियों के सामूहिक प्रभाव का परिणाम होता है जो एक लम्बे अरसे से देश मे कार्य करती आ रही होती। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उदय मे राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, और सांस्कृतिक सभी प्रकार के तत्वों ने अपना योगदान दिया। भारत मे राष्ट्रीय चेतना के उदय के कारणों को हम निम्न प्रकार स्पष्ट कर सकते है--
1. प्रश्चात्य शिक्षा एवं पश्चिम के राजनीतिक आदर्शों से प्रेरणा
भारतीय युवा अपनी शिक्षा पूर्ण करने हेतु अथवा व्यवसाय आदि अन्य कारणों से जब इंग्लैंड गए तो अंग्रेजों के व्यक्तिगत सम्पर्क मे आए और उनकी राजनीतिक संस्थाओं के कार्य करने की व्यवस्था को समझा। वे राजनीतिक स्वतंत्रता और स्वाधीनता के मूल्यों को समझने लगे। उनमे गुलामी की हीन मानसिकता धीरे-धीरे छटने लगी। भारत लौटने पर गुलामी की परिस्थितियां उन्हें खलने लगी।
इसके अतिरिक्त भारत मे भी अंग्रेजों ने पाश्चात्य शिक्षा पद्धति को लागू कर दिया था। जिससे भारतीयों को पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान का परिचय हुआ। अंग्रेजी भाषा के द्वारा भारत की विभिन्न भाषाओं को बोलने वाले लोगों के लिए एक दूसरे को समझना आसान हो गया। भारतीयों को स्वतंत्रता, समानता व भ्रातृत्व के नारे भी विदेशी साहित्य एवं इतिहास के अध्ययन से प्राप्त हुए।
2. भारतीय समाचार पत्रों का योगदान 
भारत मे राष्ट्रीय चेतना की जागृति के लिए समाचारों पत्रों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। उस समय भारतीय भाषाओ व अंग्रेजी भाषा मे कई समाचार पत्र निकले। यह सभी पत्र मुख्य रूप से देश प्रेम और साम्राज्यवाद के विरोध की आवाज को बुलंद करते थे।
3. आर्थिक असन्तोष
राष्ट्रीय आंदोलन के उदय का एक प्रमुख कारण आर्थिक असन्तोष भी था। ईस्ट इंडिया कंपनी जो व्यापार के लिए 1600 मे भारत आई उसने अठारहवीं सदी मे मुगल साम्राज्य के पतन के बाद शुरू हुई घरेलू लड़कियों का फायदा उठाकर यहाँ के कारखानदारों एवं सौदागरों को भी नष्ट करने का काम किया। विदेशी पूंजीपतियों ने देशी पूँजीपतियों पर हावी होकर उनका विकास रोक दिया। भारत के कुटीर उद्योगों का पतन हो गया भारतीय बेरोजगार हो गई।
4. शासकीय नौकरियों के संबंध मे पक्षपात
सरकारी नौकरियों की नीति भी पक्षपातपूर्ण थी। सन् 1858 मे विक्टोरिया घोषणा मे विश्वास दिलाया गया था कि भारतीयों को बगैर किसी रंग, धर्म, जाति के अच्च पदों पर नियुक्त किया जाएंगा। लेकिन इसे व्यावहारिक रूप प्रदान नही किया गया।
5. क्रांग्रेस का उदय
सन् 1885 मे क्रांग्रेस की स्थापना की गई थी। क्रांग्रेस ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के लिए एक मंच का कार्य किया। इस मंच पर भारत की महत्वपूर्ण शक्तियां धीरे-धीरे एकत्रित होने लगी। क्रांग्रेस के मंच से देश की विभिन्न समस्याओं के बारे मे विचार होने लगे। धीरे-धीरे क्रांग्रेस एक आन्दोलन बन गई। राष्ट्रीय आन्दोलन के विकास मे कांग्रेस का योगदान स्वर्णाक्षरों मे लिखा गया।
6. 1857 की उथल-पुथल से सीख
सन् 1857 की क्रान्ति को भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के नाम से जाना जाता हैं। हाॅलकि सन् 1857 की क्रान्ति असफल रही। अंग्रेजो ने उसमे भाग लेने वाले भारतीय से जो व्यवहार किया, उसकी प्रतिक्रिया भारतीय मानस मे हुई। भारत के लोग स्वतंत्रता के दीवानों के प्रति श्रद्धा से भर उठे। 1857 के विद्रोह को वे राष्ट्रीयता संग्राम के रूप मे स्मरण करने लगे।
7. इलबर्ट बिल विवाद
1883 मे लाॅर्ड रिपन की कौंसिल के एक सदस्य इलबर्ट ने एक बिल पेश किया जिसका उद्देश्य भारतीय न्यायाधीशों को भी अंग्रेज अपराधियों के मामले सुनने और उन्हें दण्ड देने का अधिकार दिया जाना था। आंग्ल-भारतीय प्रेस ने इसका घोर विरोध किया, इसके विरोध मे उग्र आन्दोलन आरंभ किया। इसमे उनकी संचुचित मानसिकता, स्वार्थ, जातीय, कटुता, घमण्ड और झुठी श्रेष्ठता को अभिव्यक्त किया। भारतीयों के प्रति अत्यंत निम्न व घिनौनि भाषा का प्रयोग किया गया एवं इतनी अधिक उग्रता प्रदर्शित की गई कि ब्रिटिश शासन को बिल वापस लेना पड़ा। आंग्ल भारतीयों को एक शक्तिशाली और देशव्यापी एकता पर आधारित संगठन की आवश्यकता थी जिसका अभाव तीव्रता से अनुभव किया गया। भारतीयों मे यह समझ उभरने लगी कि एक न्यायपूर्ण बिल का विरोध करने हेतु जब आंग्ल भारतीय एकत्रित हो सकते है तो क्यों न भारतीय भी अपने सम्मान के लिए एक संगठित आन्दोलन की नींव रखे। इस विधेयक और इसके विरोध मे किए गए आन्दोलन ने भारतीय राष्ट्रीयता का उदय तीव्रता से प्रोत्साहित किया। शायद इसके मूल रूप मे पारित होने पर भी यह सम्भव नही हो सकता था। इन सभी कारणों ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के लिए वातावरण निर्मित किया।
8. धार्मिक और सामाजिक पुनर्जागरण
भारत वर्ष के राष्ट्रीय आन्दोलन के विकास मे धार्मिक तथा सामाजिक सुधार आंदोलन की निर्णायक भूमिका रही है। भारत के राष्ट्रीय पुनर्जागरण मे देश-विदेश के मनीषियों एवं चिन्तकों ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। भारत मे राजा राममोहन राय, दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, लोकमान्य तिलक आदि ने भारत की अन्तरात्मा की आवाज को टटोलने का प्रयास किया।
9. लाॅर्ड लिटन की दमकारी नीतियां
लाॅर्ड लिटन का शासनकाल ऐसी अनेक घटनाओं से ओतप्रोत था जिससे जातीय विद्वेष व कटुता अधिक बढ़ी। सिविल सर्विस सेवा परीक्षा की आयु कम करना, भयंकर अकाल की स्थिति मे दरबार सम्पन्न करना, काबुल पर निरर्थक आक्रमण कर दूसरा अफगान युद्ध करना, "रशियन भालू" के आगे बढ़ने का भ्रम पैदा कर सेना मे वृद्धि, वैज्ञानिक सीमांकन के नाम पर अनावश्यक व्यय आदि कुछ ऐसे कार्य थे जिनसे एक ओर जातीय कटुता बढ़ी और दूसरी ओर भारत पर आर्थिक बोझ भी बढ़ा। इस प्रकार लार्ड लिटन की भारत मे दमनकारी नीतियों के विरोध मे भारतीयों मे प्रबल जनमानस तैयार हुआ।
10. आवागम एवं यातायात के साधनों का विकास
1860-70 के दशक मे आधुनिक संचार साधनों एवं यातायात के साधनों के विकास ने राष्ट्रीय चेतना को मूर्त रूप देने मे महत्वपूर्ण योगदान दिया। सड़कों, रेलों, डाक, और तार, तथा यातायात एवं संचार के द्वार साधनों का जाल ब्रिटिश शासन ने अपने उद्योग, व्यापार एवं अधिक प्रभावशाली प्रशासन हेतु बिछाया था, परन्तु इन साधनों ने सारे देश को एक सूत्र मे बांध दिया और भारत के भौगोलिक विस्तार को एकता की मूर्त वास्तविकता मे बदल दिया। इन साधनों से राष्ट्रीय भावना के विकास मे वृद्धि हुई।
11. राजनैतिक एवं प्रशासकीय एकता का सूत्रपात
प्लासी के युद्ध मे विजय से भारत मे अंग्रेजी राज्य की नींव पड़ गयी। सारे भारत पर सीधे ब्रिटिश शासन स्थापित हो गया। अंग्रेजो ने भारत मे प्राकृतिक सीमाओं तक राज्य विस्तार कर उसे एक सुदृढ़ राजनैतिक इकाई बना दिया। इस एकीकरण ने राष्ट्रीयता की भावना का विकास किया।
12. विदेशी आंदोलन व घटनाओं का प्रभाव 
इटली, जर्मनी, रूमानिया और सर्बिया के राजनीतिक आंदोलन, फ्रांस की राज्य क्रांति के "स्वतंत्रता समानता और भ्रातृत्व" के संदेश, आयरलैंड के होमरूल आंदोलन, इंग्लैंड मे सुधार कानूनों का पारित होना आदि घटनाओं ने भारतीयों के मस्तिष्क पर प्रभाव डाला। इन आंदोलनों ने भारतीयों को दृढ़ता प्रदान की और स्वाधीनता प्राप्ति के लिए प्रेरित किया। 1893 में जब एक छोटे से देश अबीसिनिया द्वारा इटली जैसे विशाल देश तथा 1904 में जापान द्वारा रूस को परजित किया गया तो भारतीय राष्ट्रीयता को एक बहुत बड़क शक्ति मिली और यह प्रेरणा मिली कि संगठित प्रयासों द्वारा मुठ्ठी भर अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालना कोई कठिन का नहीं हैं।

निष्कर्ष 

इसे ब्रिटिश सरकार का सौभाग्य कहा जा सकता है कि भारत की जनता के कष्ट और असंतोष ने विद्रोह का मार्ग न पकड़कर राष्ट्रीय आंदोलन का मार्ग अपनाया। यह रास्ता सन् 1885 में " भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस " की स्थापना से मिला। सामाजिक और राजनीतिक सुधार की माँग धीरे-धीरे स्वतंत्रता की आकांक्षा में बदल गई। 
यह बात बिना किसी विवाद के पूर्णता सत्य है कि," भारतीय राष्ट्रवाद ब्रिटिश राज का शिशु था।" पाश्चात्य शिक्षा, अंग्रेजी भाषा, अंग्रेजी साहित्य, अंग्रेजी समाचार पत्रों ने राष्ट्रवाद की प्रेरणा दी। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उदय के लिए अंग्रेजों की मूर्खतापूर्ण नीतियों, जातीय विभेद की नीति, आर्थिक शोषण तथा दमकारी कानूनों ने भी वरदान का ही काम किया।
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने सत्य ही लिखा है कि," बुरे शासक प्रायः अनजाने में जनता के लिए वरदान बन जाते है।" अंग्रेज शासकों ने भारतीय राष्ट्रवाद के प्रति आरंभ से ही उदार दृष्टिकोण अपनाया, उसे पुष्पित और पल्लवित होने दिया। 
डाॅ. ईश्वरी प्रसाद के शब्दों में," पश्चिम के राजनीतिशास्त्र विशेषज्ञ लाॅक, स्पेन्सर, मैकाले, मिल और बर्क के लेखों ने केवल भारतीयों के विचारों को ही प्रभावित नहीं किया अपितु राष्ट्रीय आंदोलन की रूपरेखा और संचालन पर गहरा प्रभाव डाला।"
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